अशोक पाण्डे : जितनी मिट्टी उतना सोना ( पुस्तक समीक्षा )

अशोक पाण्डे : जितनी मिट्टी उतना सोना ( पुस्तक समीक्षा )

अशोक पाण्डे : जितनी मिट्टी उतना सोना ( पुस्तक समीक्षा )

पुस्तक – जितनी मिट्टी उतना सोना
लेखक – अशोक पाण्डे
प्रकाशक – हिंद युग्म
विधा – यात्रा वृत्तांत

अशोक पाण्डे और आस्ट्रिया निवासी मानवशास्त्री डॉक्टर सबीने लीडर ने लगभग चार साल तिब्बती सीमा से लगे व्याँस , चौंदास, दारमा और जोहार घाटियों के गाँवों में बिताए थे और यहाँ रहने वाली  रं या शौका जनजाति पर शोधकार्य किया था। यह पुस्तक उन्हीं चार सालों में से जुलाई से अक्टूबर 1996 का विवरण प्रस्तुत करती है। इसमें अशोक जी धारचूला से शुरू हुई यात्रा जो तवाघाट से दारमा घाटी के सोबला होते हुए कुमाऊँ-गढ़वाल के सबसे ऊँचे दर्रे सिन-ला को पारकर व्याँस और चौंदास घाटियों को पार करते हुए वापस धारचूला आते हैं, का बड़ा ही सुंदर, पठनीय और भावपूर्ण वर्णन किया है।

यह पुस्तक हमें रं या शौका जनजाति के रहन-सहन, खान-पान, व्यापार, धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं, देवताओं, विभिन्न अनुष्ठानों, बोली, प्रचलित लोककथाओं से परिचय करती है। बाहरी दुनिया का उन पर प्रभाव, साल-दर-साल होने वाले बदलाव और इन विकट प्राकृतिक परिस्थितियों के बीच इनकी जीवटता और जिजीविषा अकथनीय है। ये लोग अपनी धरती से कितने जुड़े हुए हैं इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि बरसों पहले और कहीं जाकर बसे हुए परिवार के लोग अब भी हर साल अपने घर आकर कुछ समय जरूर गुजारते हैं।

ये बेहतरीन मेज़बान, विनम्र, शानदार किस्सागो हैं। उनकी बोली संवृद्ध है पर लिपिबद्ध नहीं है। ये जरूरी है कि रं-ल्वू बोली को लिपिबद्ध किया जाए ताकि एक ऐसी भाषा का विकास हो जिसमें चालीस से अधिक सर्वनाम हैं।

किताब का मुख्य पृष्ठ बहुत आकर्षक है। इसमें एक प्यारी सी लड़की शायद रं की पारंपरिक वेशभूषा पहने हुए बड़ी ही सुंदर लगती है। शीर्षक पढ़ते ही स्पष्ट हो जाता है कि लेखक प्रकृति प्रेमी हैं। यह पुस्तक हमें शहरी जीवन के धुएं से खींचकर एक ऐसे प्राकृतिक वातावरण में ले जाती है जहाँ हम भी लेखक के साथ उसकी यात्रा का हिस्सा बन जाते हैं। यात्रा केवल लेखक ही नहीं करता बल्कि अपनी यात्रा को लिपिबद्ध कर वह अपनी यात्रा को पाठकों की यात्रा भी बना देता है जहाँ पाठक उसके साथ पहाड़ों को जी भर कर देखता है, पहाड़ों पर चरती बकरियों को निहारता है, लोगों से मिलता है, उनकी कहानियाँ सुनता है, नाचता है, बर्फ में फिसल कर चोट खाता है, बारिश में भीगता है और च्यक्ति के आनंद का तो कहना ही क्या।

अशोक जी ने इस पुस्तक में अपनी यात्रा के विवरण के साथ अपनी भावनाएं भी हमसे साझा की हैं। ज्यादातर लोगों के लिए यात्रा का अर्थ घूमना-फिरना, फोटो खिंचवाना, खाना-पीना होता है। हम घूमकर तो आ जाते हैं पर उस जगह को जान नहीं पाते। अशोक जी में अपनी यात्रा में लोगों के साथ जगह और दिख रही हर एक चीज़ की थाह पाने और उसे शब्दों में ढाल देने की कला है। उन्होंने बहुत सरल शब्दों में अपने विवरण लिखे हैं। उनके पेड़ और ताले उदास हैं, घोड़े दुखी हैं और हरियाली सुस्त है।

यह पुस्तक शुरू से ही पाठक को बांधने लगती है। वैसे तो पूरी पुस्तक में ही रोचक विवरण हैं जो लोककथाओं से भरे हुए हैं फिर भी मुझे ‘जौलिंगकौंग से कुटी और रास्ते में हिमालय का समुद्र’ और ‘कुटी गाँव का पांडव स्येरा, जयराज और भोजपत्र का जंगल’ बहुत अच्छे लगे। इनमें विचित्र भूगर्भीय सरंचनाओं का विवरण, पहाड़ों का मानवीकरण, चार्ल्स ए. शेरिंग की पुस्तक से लिए गए घाटी के साथ रं लोगों का सुंदर वर्णन दिल को छू गया।

बालिंग गांव के मोहक दृश्यों, बौन गाँव के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता दिवस पर टिप्पणी, खच्चरों और बकरियों से हुआ ट्रैफिक जाम, भोजपत्र के जंगल का जादू और झूम्खो परंपरा का रोचक वर्णन पठनीय है। सबीने की ओर वयस्कों का झुकाव और सबीने का बच्चों के साथ घुल-मिल जाना होठों पर मुस्कुराहट ले आता है।मैंने एक नया शब्द नॉस्टेल्जिया सीखा जिसका अर्थ है गृहातुरता। गृहातुर व्यक्ति प्रायः किसी पुराने समय या स्थान से सम्बन्धित अपनी मधुर स्मृतियों के आते ही उनकी प्रशंसा करने लगता है। एक बात और ध्यान देने लायक है कि रं लोककथाओं में महाभारत और रामायण काल से जुड़े किस्से भी हैं। यहाँ तक कि कुन्ती को कई जगहों पर देवी के रूप में पूजा जाता है, पांडवों के नाम पर कई स्थानों का नामकरण भी किया गया है पर इसके लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

यह पुस्तक अशोक जी को लेखक, अनुवादक, भूगोलवेत्ता, सम्वेदनशील व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने के साथ ही उनके कवि हृदय से भी परिचित कराती है। इस पुस्तक को पढ़कर मैं कभी सोचती हूँ कि ऐसी यात्रा कितनी रोमांचक होगी पर तभी खयाल आता है कि अशोक जी और सबीने ने जिन मुश्किलों का सामना किया, क्या मैं वो कर पाऊँगी? अशोक जी ने यह वृत्तांत बाइस सालों बाद प्रकाशित करवाया है। अब उन घाटियों की यात्रा बहुत सुगम हो गई है। ज्यादातर गाँवों तक सड़क बन चुकी है। इंटरनेट और होमस्टे की सुविधा भी है। मुश्किलें भले ही कम हो गई हैं पर रोमांच उतना ही हो सकता है अगर नजरिया अशोक जी जैसा हो।

चुनिंदा पंक्तियाँ :

# जहाँ-तहाँ हमारी मुलाकात उदास दिखने वाले उखड़े पेड़ों से होती है जो मृत योद्धाओं की तरह सपाट लेटे हुए हैं।
# दूर स्लेटी, नीले और भूरे पहाड़ों पर निगाह ठहरती है। बहुत जल्दी हम वहाँ होंगे। इस बात के एहसास भर ने हम दोनों को उत्साह से भर दिया है और अब हम ख़ुशी-ख़ुशी चल रहे हैं- बतियाते, लतीफ़े छेड़ते, कभी-कभी सिगरेट फूँकने को ठहरते हुए।
# चुस्त दिखने वाले चमड़े के बने बैग जिन्हें करबच कहा जाता है, उनकी पीठों पर बंधे हुए हैं। उनमें से दार्शनिकों जैसी आँखों और लंबी शंक्वाकार दाढ़ियों वाली कुछ बकरियाँ हैं जिन पर कुछ नहीं लादा गया है। तीन कुत्तों के साथ वे झुंड की पहरेदार हैं।
# बालिंग आपके सामने हक्का-बक्का कर देने वाली आकस्मिकता के साथ प्रकट होता है। अभी तक खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों, अधीर नदियों-धारों और जंगली वनस्पति से भरे सँकरे लैंडस्केप की जगह अचानक विराट शांति से भरा, दूर तक पसरा हुआ एक दूसरा लैंडस्केप ले लेता है।
# फर्नांदो पेसोआ की पंक्तियाँ –
हम चीज़ों में जो कुछ देखते हैं वही वे हैं
हम एक ही चीज़ क्यों देखें जब वहाँ एक और भी है?
देखना और सुनना हमें क्यों भ्रमित करे
जबकि देखना और सुनना बस देखना और सुनना होता है?
ज़रूरी बात है देख पाने में महारत
और बग़ैर सोचे, अच्छी तरह देख पाना
और इस काबिल होना कि देखते वक़्त सिर्फ देखा जाए
जब देख रहे हों तो सोचें नहीं
और सोचते वक़्त देखें नहीं
# भोजपत्र के शानदार पेड़ ऐसे दिखाई दे रहे हैं जैसे एक पूरा का पूरा प्रार्थनारत गाँव किसी अजानी शक्ति के एक इशारे पर जंगल में बदल गया हो। अब अँधेरा है। हरा अँधेरा। और हमारे और उस अँधेरे के बीच ख़ूब चौड़ा फासला है।
# रं स्त्रियों के रंग-बिरंगे वस्त्र और कलात्मक आभूषण प्रकृति के प्रतिरूप हैं जो मुश्किल जलवायु और खतरनाक भूगोल को चुनौती देने और उनमें ख़ुद को बचाए रखने की उनकी अदम्य इच्छाशक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
# खिड़की से बाहर देखता हूँ- घने बादल और सलेटी आकाश- मेरी उदासी को प्रतिबिंबित करते जैसे। मैं और उदास हो जाता हूँ। दोनों किताबें रात भर के लिए इश्यू करा लाता हूँ।
# धुँए से भरी रसोई में स्त्री-पुरूष नाच रहे हैं। चूल्हे से निकलती कोई लपट कभी किसी चेहरे को आभासित कर देती है। यह सब बेहद सम्मोहक है हमेशा की तरह।
# विशाल लहरों की सुदूर ध्वनियाँ सुनाई देती हैं और मैं प्रस्तरयुग से पहले की सड़ी मछलियों की बदबू तक सूँघ पा रहा हूँ। मेरा दिमाग मार्केज़ के उपन्यासों सरीखी जादुई छवियों से अट जाता है जिनमें तमाम सूख चुके महासागरों की स्मृतियाँ हैं। मुझे एक पल को लगता है मैं इस दुनिया में ही नहीं हूँ।
# ” हमारे यहाँ शिकारियों के बीच एक कहावत चलती है- खरगोश का पीछा करोगे तो बारहसिंघा निकलेगा!”

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