तस्लीमा नसरीन : लज्जा | लज्जा (उपन्यास)

तस्लीमा नसरीन : लज्जा | DREAMING WHEELS

तस्लीमा नसरीन : लज्जा | DREAMING WHEELS

तसलीमा नसरीन विश्वविख्यात बांग्लादेशी लेखिका हैं जो पेशे से एक सरकारी डॉक्टर थी। इनकी जन्मतिथि 25 अगस्त 1962 प्रचलित है, पर वास्तविक जन्मतिथि 5 सितंबर 1960 है जो उनके बचपन की घटनाओं से भी मेल खाती है। इनका जन्म मयमनसिंह, पूर्वी पाकिस्तान ( वर्तमान बांग्लादेश ) में हुआ था। इन की प्रतिभा स्कूल से ही दिखाई देने लगी थी। लेखन की शुरुआत कविताओं से की और कुछ समय पश्चात ही कथा लेखन द्वारा उनके स्वतंत्र विचार पूरी दुनिया के सामने आए जिसमें अंतर धार्मिक वर्चस्व व स्त्रियों की समाज में स्थिति महत्वपूर्ण है।
तस्लीमा नसरीन

‘लज्जा’ इनका पांचवा उपन्यास है, जो 1947 में हुए भारत विभाजन के फल स्वरूप जनमे पाकिस्तान के हालातों को बयां करता है जिसके प्रधान मंत्री मुहम्मद अली जिन्ना भले ही यह कहते सुनाई देते हैं कि कोई भी व्यक्ति हिंदू या मुस्लिम होने से पहले पंजाबी या बंगाली है परंतु यह जातियता  हिंदु व मुस्लिमों को बांधकर नहीं रख पाई। संप्रदाय को आधार बनाकर अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति करने वाले शासकों ने पहले पाकिस्तान व बाद में बांग्लादेश को सांप्रदायिक देश बनाने में कोई कमी नहीं की।

यह उपन्यास 6 दिसंबर 1992 को भारत में बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश में होने वाली आक्रामक प्रतिक्रया है। बांग्लादेश के मुसलमान अल्पसंख्यक हिंदूओं पर इस घटना का आरोप लगाते हुए अपने ही हिंदू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं। एक मस्जिद के बदले बांग्लादेश के सैकड़ों धार्मिक स्थलों का ध्वंस कर देते हैं। हत्या, लूट, बलात्कार,  बांग्लादेश छोड़ने के लिए हर तरीके से मजबूर करना, हिंदुओ को कचरा समझना और इसके निपटारे के लिए हर सम्भव प्रयास करना वहां के मुस्लिम अपना कर्तव्य समझने लगते हैं जिसके जिम्मेदार भारत के हिंदू संगठन भी हैं।

एक धर्म की कट्टरता दूसरे ‘सर्वधर्म समभाव’ रखने वाले लोगों को कट्टर होने पर मजबूर करती है। इसके अनेकों उदाहरण समूचे संसार में देखे जा सकते हैं। अब भारत भी इसी दिशा में अग्रसर है।

पर क्या बांग्लादेश में हिंदुओं की ऐसी स्थिति 1992 में ही हुई , नहीं ये स्थितियां कम भयवाह रूप में ही सही पर भारत विभाजन के बाद से ही थीं तभी तो सुधामय ने धोती पहनना, किरणमयी ने शाखा-पोला पहनना,  सिंदूर और बिंदी लगाना, गाना गाना छोड़ दिया। जिंदा रहने के लिए कई बार नाम तक बदलकर रहना पड़ा। अपनी जमीन, बगीचा, सब्जी बागान, पोखर सब कुछ बेचकर जाना पड़ा।

इसे पढ़ते हुए महसूस होता है जैसे लेखिका खुद इन तकलीफों से दो-चार हुई हैं। मुझे तसलीमा जी खुद सुरंजन जैसी लगती हैं जो ना ही हिंदू कहलाना चाहती हैं और ना ही मुस्लिम वो कहलाना चाहती हैं तो सिर्फ एक ‘इंसान’।

सुधामय दत्त का परिवार उन लाखों बांग्लादेशी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो अपनी मिट्टी, अपने देश से जुड़े रहने के लिए हर हाल में प्रतिबद्ध हैं परंतु साम्प्रदायिकता की ओर बढ़ता देश क्या उन्हें ऐसा करने देगा?

तस्लीमा जी की ‘लज्जा’ सुधामय की उस ‘लज्जा’ की कहानी है जो उसे अपने देश को छोड़ने और अपनी टूटती आस्था पर आ रही है। क्या उसे अपने ही देश में अपनी संस्कृति को बचाये रखने, अपनों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने तक की स्वतंत्रता नहीं है?

लज्जा तो इस पूरी मानव जाति को आनी चाहिए जो पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान प्रजाति कहलाते हुए भी एक मानवीय समाज की रचना नहीं कर पाए।

तस्लीमा जी का यह उपन्यास हमें गहन चिंतन के अवसर उपलब्ध कराता है और हमारे मन में बसी धर्म की खोखली अवधारणाओं को नई दिशा देने का प्रयास भी करता है।

चुनिंदा पंक्तियाँ:

* लज्जा पीड़ित होने की नहीं, बल्कि जो अत्याचार कर रहे हैं, उनके लिए होती है।* उसका नाम सुरंजन दत्त है इसलिए उसे घर पर बैठे रहना होगा और केसर, लतीफ़, बेलाल, शाहीन ये सब बाहर निकलकर कहाँ क्या हो रहा है इसकी चर्चा करेंगे।

* क्या बिल्ली आज ढाकेश्वरी मंदिर नहीं गई ? अच्छा इस बिल्ली की क्या जात है ? क्या यह हिंदू है ? हिंदू के घर में रहती है तो हिंदू ही होगी शायद । काले-सफेद रंगों से मिश्रित इसका शरीर, नीली-नीली मायावी आँखें । क्या इसकी आँखों से भी करूणा का भाव झलक रहा है ? तब तो यह भी मुसलमान ही होगी! अवश्य ही मुक्त चिंतन वाली  विवेकवान मुसलमान होगी, क्योंकि आजकल वे हिंदुओं को करुणा भरी निगाहों से देखते हैं।

* सोचना चाह रहे हैं हिंदुओं को इस देश में बहुत न्याय मिलता है। इस देश मे हिन्दू-मुसलमान को समान मर्यादा मिलती है।

* यह देश उसका है, उसके बाप का, उसके दादा का, दादा के भी दादा का है यह देश। फिर भी वह क्यों कटा हुआ महसूस कर रहा है। क्यों उसे लगता है कि इस देश पर उसका अधिकार नहीं है।

* यहाँ हिन्दू द्वितीय श्रेणी के नागरिक हैं। क्या द्वितीय श्रेणी के नागरिकों को लड़ाई का अधिकार रहता है ?

* बाप की जमीन नहीं तो क्या हुआ , कदमों के नीचे देश की माटी तो है।

* सुरक्षित-असुरक्षित की बात सिर्फ माया को लेकर क्यों उठती है, पारुल को लेकर तो नहीं उठती। क्या पारुल को कभी अपना घर छोड़कर माया के घर आश्रय लेना पड़ेगा ?

* चूर-चूर हो जाए धर्म की इमारत, जल जाएं अंधी आग में मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा की ईंटें। और उस ध्वंसस्तुप के ऊपर सुगंध बिखेरता हुआ पनपे मनोहर फूलों का बगीचा , पनपे शिशु स्कूल , वाचनालय।…….
…………… धर्म का एक और नाम आज से मनुष्यत्व हो।

* ‘इण्डिया ?’ सुधामय इस तरह चौंक पड़े मानो एक विचित्र शब्द सुना हो , मानो ‘इण्डिया’ एक अश्लील शब्द है, एक निषिद्ध शब्द , इसे उच्चारित करना अपराध है।…………………….’अपना देश छोड़कर भागने में लज्जा नहीं आती ?’

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