भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा उपन्यास (भाग 1) | चित्रलेखा उपन्यास सारांश
भगवतीचरण वर्मा का नाम साहित्य जगत में बहुत सम्मान व आदर के साथ लिया जाता है। उनके द्वारा लिखी गई रचनाओं ने हिंदी साहित्य के विकास में योगदान दिया। उनका जन्म 30 अगस्त 1903 को उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के शफीपुर गाँव में हुआ था। उन्होंने बी.ए. व एल. एल. बी. प्रयागराज में किया। बहुत कम उम्र से ही वे कविताएँ लिखने लगे। जल्दी ही उपन्यास लेखन भी प्रारंभ किया। उन्हें सर्वाधिक ख्याति दिलाने वाला उपन्यास था ‘चित्रलेखा’ जो वर्ष 1934 में प्रथम बार प्रकाशित हुआ।
भगवतीचरण जी प्रतापगढ़ के राजा साहब भदरी के साथ भी कुछ दिनों रहे। 1936 में फ़िल्म कारपोरेशन, कलकत्ता में काम किया। ‘विचार’ नामक पत्रिका का प्रकाशन-सम्पादन, ‘नवजीवन’ का सम्पादन, फ़िल्म- कथालेखन और आकाशवाणी केन्द्रों में भी काम किया परन्तु उनका मन केवल लेखन में लगा रहा। उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ व ‘पद्मभूषण’ से भी सम्मानित किया गया। उन्होंने अनेक उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ, नाटक व संस्मरण लिखे हैं जो हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। उनका निधन 5 अक्टूबर 1981 को 78 वर्ष की उम्र में हुआ।
चित्रलेखा कथा है पाप के खोज की। पाप क्या है? यह समाज में कहाँ पाया जाता है और इसकी गति कैसी है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए भगवती जी ने इस उपन्यास में चित्रलेखा नाम की एक ऐसी स्त्री का चरित्र गढ़ा है जिसके कारण योगी कुमारगिरि भोगी व भोगी बीजगुप्त योगी बन जाते हैं। इस उपन्यास के माध्यम से दर्शाया गया है कि मनुष्य परिस्थितियों अनुसार अपने मन के वश में होकर अपने आत्मबल का त्याग कर जिन रास्तों पर चलने लगता है उनसे शायद वह स्वयं भी अनजान रहता है। प्रेम और वासना के भेद का स्पष्टीकरण इस उपन्यास की विशेषता है।
वैसे तो इस उपन्यास में समस्या ‘पाप’ को बताया गया है परंतु पाप को वर्णित करना कोई सरल कार्य नहीं। सभी के लिए पाप की परिभाषा अलग-अलग होती है। कोई कृत्य किसी एक के लिए पाप तो दूसरे के लिए परिस्थितिजन्य कारण हो सकता है।
भगवती जी ने इस उपन्यास की रचना बाइस परिच्छेदों (भाग) में की है। अतः मैं भी इसका सार आपको परिच्छेदों में ही बताऊँगी।
उपक्रमणिका (प्रस्तावना)
कथा शुरू होती है पाटलिपुत्र में निवासरत महाप्रभु रत्नाम्बर से जिनके दो शिष्य हैं विशालदेव और श्वेतांक। श्वेतांक उनसे पाप के विषय में प्रश्न करता है जिसका उत्तर देते हुए महाप्रभु कहते हैं कि यदि तुम पाप के विषय में जानना चाहते हो तो इसे संसार में खोजना होगा। अतः पाप की खोज हेतु वे अपने शिष्यों में से विशालदेव जिसे ध्यान व आराधना से प्रेम है, कुमारगिरि का शिष्य और श्वेतांक जो क्षत्रिय है, संसार से प्रेम रखता है उसे बीजगुप्त का सेवक बनने को कहते हैं और स्वयं एक वर्ष तपस्या हेतु गमन करने वाले हैं।
कुमारगिरि योगी है। उसे लगता है कि उसने संसार की सभी वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। उसने असली सुख को पहचान लिया है। उसके तप ने उसके व्यक्तित्व को एक तेज प्रदान किया है वहीं बीजगुप्त पाटलिपुत्र का एक प्रसिद्ध सामन्त है जो हमेशा भोग-विलास में लिप्त रहता है। उसके पास संसार के समस्त ऐश्वर्य हैं। उसे ईश्वर में भी विश्वास नहीं है। प्रसन्नता ही उसके जीवन का लक्ष्य है।
पहला परिच्छेद
चित्रलेखा एक ब्राह्मण विधवा थी जो अठारह वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई थी। उसने हमेशा वैधव्य के नियमों का पालन किया परन्तु जल्दी ही उसके जीवन में कृष्णादित्य नाम के क्षत्रिय युवक ने प्रवेश किया। दोनों ने साथ रहने की शपथ ली और चित्रलेखा गर्भवती हो गई जिससे समाज ने दोनों का बहिष्कार कर दिया। इस अपमान से दुखी कृष्णादित्य ने अपने जीवन का अंत कर दिया और अकेली चित्रलेखा को एक नर्तकी ने अपने घर में आश्रय दिया। वहाँ उसे पुत्र हुआ पर वह भी आते ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। फिर उस नर्तकी ने ही उसे नृत्य-संगीत की शिक्षा दी। चित्रलेखा भले ही नर्तकी थी परन्तु उसने पुनः वैधव्य का संयम पालने की ठानी।
पाटलिपुत्र के सभी लोग चित्रलेखा के सौंदर्य और तेज से प्रभावित थे पर वर किसी को भी अपने पास नहीं आने देती थी। एक दिन बीजगुप्त उसका नृत्य देखने आया। वह उसे एकटक निहार रहा था। नृत्य करते हुए चित्रलेखा की नजर उस पर पड़ी और वह भी उसे रुककर देखने लगी पर कुछ ही पलों में उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। नृत्य समाप्त होने पर बीजगुप्त ने उससे मिलने की इच्छा जाहिर की परन्तु चित्रलेखा ने मना कर दिया। इसके बाद बीजगुप्त उसके किसी नृत्य समारोह में नहीं गया। परन्तु अब चित्रलेखा की आँखे उसे हर जगह ढूँढती। आखिर अपने हृदय के वशीभूत हो वह बीजगुप्त को पत्र भिजवाती है और तब से दोनों साथ थे।
बीजगुप्त और चित्रलेखा मदिरापान कर रहे हैं। जहाँ बीजगुप्त चित्रलेखा के अप्रतिम सौंदर्य से बंधा दिखाई देता है वहीं चित्रलेखा यौवन के उल्लास में मदमस्त है। बीजगुप्त चित्रलेखा से प्रश्न करता है कि-जीवन का सुख क्या है? चित्रलेखा कहती है मस्ती। वह आगे पूछता है-यौवन का अंत क्या होगा ? यह सुनकर वह गम्भीर हो जाती है क्योंकि यह विचार उसके मन में अनेक बार आया है। (यहाँ जीवन का सत्य परिलक्षित होता है क्योंकि संसार की सभी वस्तुओं के समान यौवन भी स्थाई नहीं है) वह उत्तर देती है-जीवित मृत्यु। तब बीजगुप्त कहता है कि उसे भूत और भविष्य से कोई प्रयोजन नहीं है। वह सिर्फ वर्तमान को जानता है जिसमें उल्लास है। जीवन का सुख है।
उसी समय प्रहरी अतिथियों के आने की सूचना देता है। बीजगुप्त उन्हें वहीं लाने की आज्ञा देता है। तब महाप्रभु रत्नाम्बर , श्वेतांक के साथ प्रवेश करते हैं। बीजगुप्त उठकर उनका अभिवादन करता है। फिर रत्नाम्बर उसे अपने वहाँ आने का कारण बताते हैं और श्वेतांक को सेवक रूप में स्वीकार करने को कहते हैं जिसे बीजगुप्त मान लेता है। रत्नाम्बर के चले जाने के बाद वह श्वेतांक से कहता है कि तुम आज से मेरे सेवक हुए। वह उससे चित्रलेखा की ओर संकेत करते हुए पूछता है कि क्या वह उसे जानता है? श्वेतांक चित्रलेखा के मादक सौंदर्य को देखकर हतप्रभ रह जाता है और उत्तर देता है-नहीं। तब बीजगुप्त उसे बताता है कि यह चित्रलेखा है। ये पाटलिपुत्र की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी होने के साथ ही मेरी पत्नी के बराबर है अतः आज से यह तुम्हारी भी स्वामिनी हुई। चित्रलेखा भी श्वेतांक को इस अनोखे संसार में आने के लिए बधाई देती है। कुछ समय पश्चात बीजगुप्त उसे चित्रलेखा को उसके भवन पहुंचाने की आज्ञा देता है।
चुनिंदा पंक्तियाँ :
# यदि तुम पाप को जानना चाहते हो, तो तुम्हें संसार में ढूँढना पड़ेगा। इसके लिए यदि तैयार हो, तो सम्भव है, पाप का पता लगा सको।
# व्यक्ति से ही समुदाय बनता है, समुदाय की प्यास उसके प्रत्येक व्यक्ति की प्यास है, फिर यह भेद क्यों?
# पाप का पता लगाने के लिए बह्मचारी की कुटी उपयुक्त स्थान नहीं है, संसार के भोग-विलास में ही पाप का पता लग सकेगा।
# “नवयुवक, तुम्हें इस अनोखे संसार में प्रथम बार आने के उपलक्ष्य में बधाई है!”
इस उपन्यास की प्रस्तावना ही इतनी जिज्ञासा उत्पन्न कर देती है कि मैं भी पाप को जानने आगे पढ़ती जाती हूँ। जहाँ एक तरफ महाप्रभु रत्नाम्बर , चित्रलेखा को बीजगुप्त के भवन में आधी रात को देखकर आश्चर्य प्रकट करते हैं वहीं श्वेतांक गुरुकुल के अनुशासन से सीधे ऐसे संसार में आ गया है जहाँ विलास अपनी चरम सीमा पर है। आगे हम देखेंगे कि विशालदेव और श्वेतांक को कौन-कौन से अनुभव मिलते हैं और उनका क्या प्रभाव होता है।