मन्नू भंडारी : मैं हार गई (भाग 4) | DREAMING WHEELS

 मन्नू भंडारी : मैं हार गई (भाग 4)

इस संग्रह की अधिकतर कहानियां मन में एक-एक सवाल छोड़ती जाती हैं पर यह कुछ अलग है जो होठों पर मुस्कुराहट लाने में कामयाब हो जाती है। इसमें गम्भीरता के साथ हास्य का पुट है। वो कहते हैं ना ‘ शार्ट एंड स्वीट ‘ तो अब पेश है…..

              4 : सयानी बुआ

सयानी बुआ जो अपने नाम के अनुसार ही सयानी थीं। उन्हें देखकर ऐसा लगता कि उनके सयानेपन को देखकर ही लोग उन्हें सयानी कहने लगे होंगे।

बचपन से ही वे हर चीज़ अपने जगह पर रखतीं, एकदम अनुशासित और समय की पाबन्द। उनके सयानेपन को इस बात से समझा जा सकता है कि चौथी क्लास में खरीदा गया रबर नवीं क्लास में खत्म हुआ।

छोटी उम्र में इतनी समझदारी उन्हें बड़ा बनाती गई। पिताजी हमें उनका उदाहरण दिया करते। हम हमेशा यही सोचते कि वह ससुराल में ही रहा करे वरना हमारी खैर नहीं।

ऐसे में जब मुझे पिताजी ने आगे पढ़ने के लिए बुआ के पास जाने को कहा तो मैंने तुरंत मना कर दिया पर पिताजी ने मुझे समझा-बुझा कर जाने के लिए राज़ी कर लिया। भगवान का नाम लेकर मैं उनके घर पहुंची।

बुआ ने मेरा खूब स्वागत किया और प्यार भी पर बचपन से सुनी गई उनकी विशेषताओं का जो डर मेरे अंदर विराजमान था उसने सबपर पानी फेर दिया। बुआ के पति को हम भाई साहब कहते थे। उनका स्वभाव बहुत अच्छा था। उस घर में सबसे प्यारी थी बुआ की पाँच साल की बेटी अन्नू।

उस पूरे घर और हर सदस्य पर बुआ के सयानेपन की छाप दिखाई पड़ती थी। सभी काम नियमानुसार किये जाते। सभी की दिनचर्या नियत थी। इस तरह के अनुशासित माहौल में खुद को बैठाना मेरे लिए बड़ा ही मुश्किल था। सबसे ज्यादा दुख मुझे अन्नू को देखकर होता था। इन नियमों में बांधकर जैसे उसका बचपन ही उससे छीन लिया जा रहा हो।

बुआजी की शादी को पन्द्रह साल हो चुके थे पर उस समय का सामान भी ऐसे चमकता था जैसे कल ही खरीदा गया हो। काँच और चीनी के बर्तन भी वे रोज खुद खड़ी रहकर साफ करवाती थी। एक बार नौकर के सुराही तोड़ देने पर उन्होंने उसे बहुत पीटा था।

बुआजी के इतने कठोर नियंत्रण में रहने के बाद भी अन्नू को बुखार आने लगा। हर प्रकार का इलाज कराया गया पर सब बेकार। एक महीना बीत गया पर बुखार न उतरा। उसे देखकर ऐसा लगता जैसे उसे बुखार ने नहीं बुआजी के डर ने जकड़ रखा है।

बहुत से टेस्ट के बाद आखिर में डॉक्टरों ने अन्नू को पहाड़ पर ले जाने की सलाह दी और कहा कि जितना हो सके उसे खुश रखा जाए, उसकी हर इच्छा पूरी की जाए। अब समस्या भाई साहब के सामने थी। वे जानते थे कि बुआजी के रहते यह सम्भव नहीं है इसलिए उन्होंने सारी बातें डॉक्टर से कह दीं।डॉक्टर साहब ने भी सब के सामने कह दिया कि माँ का साथ जाना ठीक नहीं होगा।

मन्नू भंडारी : मैं हार गई (भाग 4) | DREAMING WHEELS

अन्नू के जाने की तैयारियाँ होने लगीं। हर सामान की लिस्ट बनाई गई और रखते समय भाई-साहब को ढेरों हिदायतें दी गईं जैसे-प्याले मत तोड़ना, फ्रॉक खो मत देना, अन्नू को किस समय क्या खिलाना है, कहाँ जाना है, क्या पहनना है, सब कुछ। नियत समय पर भाई साहब अन्नू और एक नौकर के साथ चले गए। अन्नू के जाने पर बुआजी बहुत रोईं। उस दिन मुझे पहली बार लगा कि उनमें कठोर अनुशासन के साथ एक प्यार करने वाली मां भी है।

भाई साहब रोज पत्र लिखकर अन्नू की तबियत के बारे में बताते। बुआजी भी रोज पत्र लिखतीं। उन पत्रों में बहुत सी हिदायतें होतीं जिन्हें रोज दोहराया जाता। इसी तरह एक महीना बीत गया।

एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी को चिंता सताने लगी। काम में मन लगना बन्द हो गया। घर की व्यवस्था तक डगमगाने लगी। तीसरा दिन भी ऐसे ही गुजर गया। रात को वह मेरे कमरे में सोने आईं। सारी रात उन्हें बुरे सपने आते रहे और उन्हें रुलाते रहे। वे बार-बार कह रही थीं कि उन्होंने सपने में देखा कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नू उनके साथ नहीं है।

तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बुआजी ने जल्दी से पत्र लिया और पढ़ने लगीं। मैं भी बुआजी को देख रही थी। अचानक उन्होंने पत्र फेंक दिया और चीखकर रोने लगीं। मेरी आँखों के आगे भोली सी अन्नू का चेहरा घूमने लगा। लगा क्या अन्नू सचमुच ही हमें छोड़कर चली गई?

मैंने हिम्मत करके भाई साहब का पत्र उठाया और पढ़ने लगी- समझ में नहीं आ रहा कि किस मुँह से तुम्हें यह दुखद समाचार सुनाऊँ। फिर भी तुम इस चोट को सह लेना। जो इस संसार में आया है उसे जाना ही होगा। तुम्हारी इतनी हिदायतों के बाद भी मैं उसे बचा नहीं सका। जो हुआ उसे भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथों से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। जल्द ही हम लोग वापस आ जाएंगे।

पत्र पढ़कर कुछ पल के लिए मैं हैरान रह गई। ज्यों ही पूरा माजरा समझ में आया मैं जोर से हंस पड़ी। फिर किसी तरह मैंने बुआजी को पूरी बात बताई। पाँच आने की सुराही तोड़ने पर नौकर को पीटने वाली बुआजी पचास रुपये के सेट के प्याले टूट जाने पर भी आज दिल खोल कर हंस रही थीं जैसे उन्हें कोई अनमोल तोहफा मिल गया हो।

चुनिन्दा पंक्तियाँ :

# ……..भगवान करे वह ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।

# सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो कायदे में बंधी, बिना रुकावट अपना काम किये चली जा रही हैं।

# देखो यह फ्रॉक मत खो देना, सात रुपये मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड़ देना वर्ना पचास रुपए का सेट बिगड़ जाएगा। और हाँ, गिलास को तो तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे; पर देखो, पन्द्रह बरस से यह मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड़ दिया तो ठीक न होगा।

# तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहूँ।

 

 

 

 

 

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