शिवानी –  करिए छिमा सारांश  (भाग 1) | Kariye Chimma

शिवानी करिए छिमा सारांश

शिवानी जी हिंदी सहित्य की एक महान रचनाकार होने के साथ  शब्दों की जादूगर भी हैं जिनकी लिखी हर एक पंक्ति में जादू है। उनके शब्दों का चुनाव इतना अनोखा है कि मन पर गहरी छाप छोड़ता जाता है। उनकी लिखी ऐसी ही कहानी जो उनकी भी सबसे पसंदीदा कहानी है, मैं आपके लिए लेकर आई हूँ। यह कहानी पढ़ते हुए लगता है कि यह नायक प्रधान है पूरी कहानी ही   नायक के इर्द – गिर्द घूमती रहती है लेकिन असली रोमांच तो नायिका के प्रेम में है, उसके साहस में है जिसके आगे नायक की सारी पढ़ाई, सारी प्रतिभा धरी रह जाती है।

शिवानी जी का कुमाऊं प्रेम इस कहानी की विशेषता बनकर उभरा है। जहां एक ओर श्रीधर को कुमाऊं के पहाड़ों पर  चढ़ते-उतरते जीवन के उतार-चढ़ाव की सीख मिलती है वहीं दूसरी तरफ इन्हीं पहाड़ों से फलों की टोकरी लेकर उतरती हीरावती की लचकती कमर प्रदर्शनीय है। शिवानी जी ने इस कहानी के माध्यम से एक पतिता स्त्री के प्रेम की पराकाष्ठा को जिस ऊँचाई तक पहुँचाया है वह अकथनीय है। हीरावती का प्रेम उसकी मुस्कान के समान ही रहस्यमयी था जिसकी थाह श्रीधर भी न पा सका।

करिए छिमा

श्रीधर अपने भाषण की तैयारी कर रहा है। वह आने वाले चुनाव में प्रतिद्वंद्वी को हराने की तैयारी में कोई कमी नहीं करना चाहता। वह सफेद टोपी पहनकर खुद को आईने में देखता है। उसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि वह पचपन साल का है। वह बिना रिहर्सल भाषण देने कभी नहीं जाता था। कबूतर को अचानक अदृश्य कर देने वाले जादूगर की तरह वह अपनी मीठी वाणी और आत्मविश्वास से अपने आलोचकों का भी मन जीत लेता था। अपनी प्रतिभा को निखारने में उसने बहुत मेहनत की थी।

श्रीधर का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। माँ उसे जन्म देते ही चल बसी थी और पिता भी आठ वर्ष बाद मृत्यु को प्राप्त हो गए। फिर वह ताऊ के घर लाया गया जहाँ उसका जीवन कठिनाइयों से भरा था। पहाड़ों पर उतरते-चढ़ते उसने जीवन के उतार-चढ़ाव भी देख और सीख लिए। ऊँचे पद पर पहुँचने पर उसने सबसे पहले यहाँ स्कूल और कॉलेज खुलवाए। बिजली और सड़कों की व्यवस्था की। तभी तो वह एक नहीं कई चुनाव जीतता गया। पर क्या इतना सब करना सहज था? उसने स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेकर पुलिस की लाठियां भी खाई थीं और जेल में बुरे दिन भी काटे थे। पर क्या उसने यह सब केवल देशप्रेम में किया था? स्वयं को दर्पण में निहारते श्रीधर को अचानक वह याद आ गया और वह पसीने में भीग गया। उसने टोपी उतारकर फेंक दी, कुर्सी पर लेट गया और अतीत उसकी आँखों के सामने नाचने लगा।

किशोरावस्था में पहुँचने पर अपनी ताई से तंग आकर वह अपने गाँव की सीमा पर रहने वाली मिशनरी मेम के साथ रहने लगा। वह मेम संतानहीन थी। उसने श्रीधर को अपने पुत्र के समान पाला। श्रीधर की उच्च शिक्षा के साथ उसकी वाक्पटुता और विनम्रता भी उसी की देन थे। अपनी सूझ-बूझ के कारण वह गांव का नेता चुना गया पर वह रमता जोगी था। कभी कालीपार तो कभी साबरमती चला जाता। जब गांव में रहता तो गाँववाले अपने झगड़े सुलझाने उसी के पास आते। ऐसे ही झगड़े में उसने हीरावती को पहली बार देखा था जिसकी शिकायत उसकी जुड़वाँ बहन पिरभावती लेकर आई थी। कुछ महीने पहले ही हीरावती के पति की मृत्यु हो गई थी। तब ससुराल में दुःख पा रही बहन को वह अपने घर ले आई थी। पर उसकी अनुपस्थिति में उसी बहन ने उसके सौभाग्य पर डाका डाला था। हीरावती और अपने पति धनसिंह को उसने रंगे हाथों पकड़ा था। हीरावती ने अपनी सफाई में कुछ भी नहीं कहा बल्कि ढीट बनकर बैठी रही। उसे गाँव की सरहद छोड़ देने की सजा दी गई।

हीरावती सरहद पार कोढ़ी साहब के ओडयार में रहने चली गई।  यह पहाड़ी पर बनी एक प्राकृतिक गुफा थी जिसमें एक विदेशी रहने आया था। उसे कोढ़ था पर उसने पूरी गुफा की भीतरी दीवारों को अपने बनाए चित्रों से सजाया था। गुफा के चारों ओर फलों के पेड़ लगाए थे। गाँव वाले मानते थे कि उस गुफा में अब भी उसका प्रेत घूमता है। हीरावती के वहाँ रहने के संकल्प पर सभी को आश्चर्य हुआ।

तीसरे दिन हीरावती कोढ़ी साहब के बाग के सेब लेकर नीचे उतरी और बाज़ार में बेचकर अपनी नई गृहस्थी बसाने का सामान टोकरी भर कर ले गई। अब तो हर तीसरे दिन वह कमर मटकाती फलों से भरी टोकरियाँ लेकर नीचे उतरती और श्रृंगार के सामान के साथ वापस जाती। अब गाँव की औरतें उसे देखकर जलती और युवक लार टपकाते। गाँव के शिवालय की खिड़की ,जहाँ श्रीधर रहता था, वहाँ से वह गुफा साफ दिखाई देती थी। वह आते-जाते उसे दिखती। वह सोचता कि उसे यहाँ से हटाना ही होगा पर अब वह कुछ नहीं कर सकता था। हीरावती भी अकसर उसकी सांकल खटखटाकर उसे छेड़ जाती।

एक दिन भोर में शिवालय से आती आवाज़ ने उसे जगा दिया। जाकर देखा तो हीरावती रोते हुए भगवान से क्षमा-याचना कर रही थी। सदा हंसने वाली आज रो क्यों रही है यह जानने को श्रीधर व्याकुल हो उठा। उसने देखा कि हीरावती अपना सामान भी साथ लाई थी। वह गाँव छोड़कर जा रही थी। श्रीधर वापस आकर सो गया। फिर कई दिनों तक वह दिखाई नहीं दी।

एक महीने बाद अपने नए आभूषणों और यौवन की नई चमक लिए वह फिर पगडण्डी पर चढ़ती  दिखाई दी। पिरभावती उसे देखकर गुस्से में चिल्लाने लगी और दरवाजा बंद कर लिया पर हीरावती बेशरमी से हँसती हुई अपनी पगडण्डी पर चल दी। फिर कई दिनों तक नीचे नहीं उतरी। श्रीधर उसके बारे में ही सोचता रहता। जितना वह उससे दूर रहने की सोचता उतना ही वह मेनका बनकर उसके ख्यालों में नाचती। वह रो-रोकर भोलेनाथ से पूछता कि ऐसी नीच स्त्री को पाने की लालसा उसे क्यों है? उसे किस बात का दंड मिल रहा है?

श्रीधर निश्चय करता है कि सुबह होते ही वह साबरमती चला जाएगा। पर मानव मन का विकार क्या ऐसे ही मिट जाता है? वह रात को ही गाँव छोड़ देता है परन्तु बस-स्टेशन के रास्ते पर न जाकर एक दूसरे रास्ते पर निकल पड़ता है जिससे वह घने जंगल में पहुँच जाता है। जब उसे आगे का रास्ता समझ नहीं आता तब वह झरने के पास बैठकर सुस्ताने लगता है। तभी उसे किसी के कराहने की आवाज़ आती है साथ ही बारिश भी होने लगती है।वह पूछता है कि कौन है? तब हीरावती की आवाज़ आती है। वह श्रीधर की आवाज़ पहचान लेती है।

श्रीधर जिससे बचकर जाना चाहता था वही उसके पैरों की जंजीर बन जाती है। हीरावती उसे बताती है कि वह घास काटकर लौट रही थी तब उसके पैरों में मोच आ गई। वह श्रीधर से उसे गुफा में पहुंचाने का आग्रह करती है। श्रीधर यह सुनकर असमंजस में पड़ जाता है। हीरावती उसे कहती है कि शेर आ रहा है, वह जल्दी करे वरना शेर दोनों को ही अपना भोजन बना लेगा। तब श्रीधर उसे उठाकर ले चलता है। गुफा में पहुँचते ही हीरावती एक बड़ी चट्टान से गुफा का मुँह बन्द कर देती है और श्रीधर को दरार से बाहर खड़ा शेर दिखाती है। श्रीधर वहाँ से जाना चाहता था पर हीरावती उसे शेर के जाने तक रुकने के लिए कहती है।

चुनिंदा पंक्तियाँ :

# फिर वह मुस्कुराकर अपने व्यक्तित्व का द्वार मखमली डिब्बा खोल जगमगाती दाड़िम-सी दन्तपंक्ति की रत्नराशि से भीड़ को मुग्ध कर देता।
# हीरावती ने बड़ी उपेक्षापूर्ण दृष्टि से श्रीधर को देखा, फिर द्रोणागिरी के पीछे लाल आग के गोले-से डूबते सूर्य की ओर अपनी दृष्टि निबद्ध कर दी, जैसे अस्ताचलगामी सूर्य के साथ ही पंचों के निरर्थक प्रश्न को भी डुबो रही हो।
# कभी टोकरी में धरा चौकोर दर्पण उसकी समव्यस्काओं की आँखें चौंधिया जाता। कभी गौर मृणालदण्ड-से सुकुमार हाथों में चमचमाती लाल-हरी रेशमी चूड़ियाँ देखने वालों का कलेजा भूँजकर रख देतीं।
# यह ठीक था कि घास के बोझ को थामने में लचक गई कटि की मोहक भंगिमा-प्रदर्शन में स्वयं उस मायाविनी की कोई कुचेष्टा नहीं रहती थी। वह मोहक लचक तो प्रत्येक कुमाउनी घसियारीन को विधाता का देवदत्त वरदान है।
# रात को गिलट के आभूषणों में जगमगाती मेनका विश्वामित्र के सपनों के रंगमंच पर उतर ही आती पर ऐसा उत्पात मचाती कि श्रीधर शिवलिंग के सम्मुख औंधा होकर सुबकने लगता।
# कहीं बहाना बनाकर वह छाया-ग्राहणी सिंहिका उसे अपनी गुफा में अपनी लोकप्रसिद्ध क्षुधा का ग्रास बनाने को तो नहीं खींच रही थी?
# गुहा-द्वार पर लुढ़काई चट्टान के पास दोनों खूनी पंजे टेके, ऋषि-मुनियों की जटाजूट-सी अपनी सुनहरी अयाल पीताभ स्कन्धों पर बिखराए कुमाऊँ के क्रूर नरभक्षी ने दूसरी गर्जना की।

जाने-अनजाने श्रीधर अपने मन के जिस विकार से भाग रहा था, परिस्थितियों ने उसे उसी के सामने ला पटका था। क्या श्रीधर हीरावती के उस रूप से परिचित हो पाएगा जिसकी उसके मन को लालसा है या उसके भाग्य में कुछ और ही है जानने के लिए पढ़ें भाग 2।

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