शिवानी – करिए छिमा सारांश (भाग 2) | Kariye Chimma 2

शिवानी करिए छिमा सारांश
शिवानी जी अपने लेखन में संस्कृतनिष्ठ हिंदी शब्दों का प्रयोग करती हैं। इस कारण उनकी रचनाओं में प्रत्येक पंक्ति में पद-विन्यास देखते ही बनता है। उनकी लिखी हरेक पंक्ति कानों में काव्य-सी झंकृत होती है जिसे अलंकार और रस से सजाया गया है। ‘करिए छिमा’ पढ़ते हुए पाठक इसे स्वयं अनुभव कर सकते हैं। अनपढ़ हीरावती अपने प्रेमी को बचाने के लिए अपने मातृत्व का गला घोंट देती है। वह पतिता होते हुए भी एक आदर्श प्रेयसी है जिसकी अनुपम सुंदरता और हाजिरजवाबी की विलक्षण प्रतिभा देखते ही बनती है।

करिये छिमा

बाहर बर्फ गिरना शुरू हो गई थी। बाहर जितनी ठंड थी, गुफा में उतनी ही गर्मी थी। हीरावती ने चूल्हा जलाया और पास ही मशाल जला दी। उसकी रोशनी में गुफा की दीवारों पर बने चित्रों को देखकर श्रीधर अचम्भित हो गया। उन चित्रों में कहीं कृष्णवधू थी, कहीं चौखट में खड़ी सुप्रिया, कहीं अप्सरा, कहीं  द्वारपाल की मूर्ति तो कहीं शार्दूल (चीता)। मुग्ध श्रीधर गुफा का चक्कर लगाकर वापस चट्टान के द्वार पर पहुंचकर गर्म चाय लेकर खड़ी हीरावती से टकराता है। जब गर्म चाय उसके पैरों में गिरती है तो वह चौंक उठता है। तब हीरावती कहती है कि लगता है लाल साहब मोहित हो गए हैं। देखा कैसा कलाकार था कोढ़ी साहब। यह कहते हुए वह बाहर झाँकने लगती है। शेर तो चला गया है लेकिन बर्फ गिर रही है। ये सात-आठ दिनों तक नहीं गलती।

यह सब जानकर श्रीधर उत्तेजित हो जाता है। हीरावती को क्या लगता है श्रीधर कभी बर्फ पर नहीं चला। वह बाहर जाने के लिए चट्टान की ओर जाता है। तभी तेज हवा के झोंके से मशाल बुझ जाती है। वह अंधेरे में इधर-उधर भागने लगता है पर हर बार उसे दो कोमल बाहें जकड़ लेती हैं। हीरावती उसे शेर की याद दिलाकर जाने से मना कर देती है। श्रीधर ने कभी किसी स्त्री को स्पर्श नहीं किया था। हीरावती का स्पर्श उसे घातक लगता है। वह उसे दूर हटा देता है और बाहर जाने के लिए आगे बढ़ता है पर हीरावती उसके रास्ते में खड़ी हो जाती है। आधी रात तक यही क्रम चलता रहता है। अंत में हीरावती जीत जाती है। वह श्रीधर को यह कहकर मना लेती है कि मैं भले ही बहुत बुरी हूँ पर मैं कभी झूठ नहीं बोलती। मेरे पास दो पुआल के गद्दे हैं। एक में तुम सो जाना। जो तुम्हें छुए वो गोमांस खाए।

एक गद्दे में हीरावती सो गई। श्रीधर को अब भी नींद नहीं आ रही थी। उसकी एक चिंता तो सो गई थी पर उसे अब दूसरी चिंता सताने लगी थी। आखिर हीरावती दो गद्दे क्यों रखती है। क्या अक्सर ही भटके हुए अतिथियों के रात गुजारने की व्यवस्था इसने कर रखी है? वह सोचने लगा कि वह अपना सिर क्यों दुखा रहा है? वह कौन-सी दूध की धुली है? यही सब सोचते उसकी आँख लग गई। सुबह उठा तो उसे खिड़की से आते उजाले में गुफा के चित्रों  के साथ ही आग फूंकती हीरावती का नवीन रूप दिखाई दिया। हीरावती ने उसे चाय दी। फिर वह अपना एकमात्र गद्दा लपेटने लगी। तो क्या अपने सारे पहाड़ी लबादे उसे ओढ़ाकर वह रातभर ठंड में ठिठुरती रही?

हीरावती खिड़की से झाँकती है और कहती है कि बहुत बर्फ गिरी है। तीन-चार दिनों तक सूरज नहीं निकलेगा। लगता था जैसे हीरावती की सूर्य देवता के साथ साँठ-गाँठ थी। श्रीधर बन्दी शेर के समान गुफा में घूमता रहता। वैसे हीरावती ने अतिथि सत्कार में कोई कसर न छोड़ी थी। सब सामग्री उसने माला जपकर न जुटाई होगी इस बात को श्रीधर खूब समझता था। दो दिन उसने केवल काली चाय के सहारे निकाल दिए। बेचारी हीरावती भी भूखी ही सो जाती। तीसरे दिन उसके उठने से पहले ही खुशबूदार मसालों से सब्जी छौंक दी। उठते ही श्रीधर अपने सारे संस्कार भूल गया। मक्खन लगी रोटी और सब्जी उसके सामने रखकर हीरावती ने उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि तुम तो गाँधीजी के भक्त हो । वह तो मेहतरों का भी छुआ नहीं मानते। इस दलील से श्रीधर हार गया। उस दिन वह कितनी रोटियाँ खा गया उसे भी नहीं पता।

गुफा के अंधेरे में दिन और रात का अंतर समझ नहीं आता। उस दिन हीरावती ने रोज़ की भाँति मशाल नहीं जलाई। बर्फीली हवा के झोंके से सोया हुआ श्रीधर अचानक उठ बैठा। उसे ध्यान आया कि हीरावती अपने गद्दे में ठंड में काँपती बैठी होगी। उसे अपने स्वार्थी होने का दुख हुआ। उसने हीरावती से पूछा कि क्या उसके पास ओढ़ने को कुछ नहीं है? ये हमदर्दी से भरे शब्द सुनकर वह चौंक गई पर उत्तर न दे पाई। हीरावती की व्यथा श्रीधर के मन को छू गई। आखिर उसके स्वप्नों ने ही तो उसकी नींद उड़ा रखी थी। आज श्रीधर का वही स्वप्न साकार हुआ था। उसने हीरावती को पुकारा। हीरावती इस पुरूष-स्वर को अच्छी तरह पहचानती थी। उसने जरा भी देर नहीं की।

दूसरे दिन गुफा में पड़ रही सूरज की रोशनी से श्रीधर की नींद टूटी। हीरावती उसके कंधे पर सिर रखकर ऐसे सो रही थी मानो बरसों से उसी कन्धे पर सोती आ रही हो। श्रीधर को कुछ दिन पहले शिवालय में लिया गया संकल्प याद आया और वह हड़बड़ाकर उठने लगा जिससे हीरावती जाग गई। उसने श्रीधर से कहा कि लेट जाओ। ठंड लग रही है। उसने उसे वापस अपने बगल में जकड़कर सुला लिया।

अब तो श्रीधर वही करता जो हीरावती चाहती। अब श्रीधर संस्कारी न रहकर आदि-काल का मानव बन गया था। अब वह हीरावती को हरदम अपनी बाहों में झुलाए रखता। और हीरावती तो जैसे कोढ़ी साहब के चित्रों की अप्सरा ही थी। एक दिन श्रीधर ने हीरावती से जानबूझकर पूछा कि क्या गाँववाले उसके बारे में सच कहते हैं? वह जानता था कि हीरावती कभी झूठ न बोलेगी। इतने उल्लास के बीच यह प्रश्न , हीरावती का चेहरा सफेद पड़ गया। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल आँसू बहाती रही। उस दिन श्रीधर बिना खाना खाए ही उठ गया। कैसी नीच औरत है हीरावती।

छठे दिन हीरावती लकड़ियाँ बीनने गई। खिड़की पर खड़े श्रीधर को शिवालय की घण्टियाँ सुनाई दी। उसका विवेक फिर एक बार जाग उठा। क्षमा माँगता हुआ बिना मुड़े वह तीर के समान सीधा वहाँ से निकल गया। उसके बाद उसने आज तक गाँव की सीमा पार नहीं की। हीरावती को शनि की दशा मान वह देश-प्रेम का दीवाना बना लम्बे अरसे तक घूमता रहा। एक बार हीरावती का समाचार उसे जेल में मिला था। उसका एक परिचित उसे मिलने आया था। उसने बताया कि हीरावती भी इसी जेल में थी।आज ही उसे बरेली ले गए। अलकनन्दा में अपने नवजात शिशु को डूबाते हुए डाकिए ने देखा था। जब उससे इस बारे में पूछा गया तो वो वैसे ही मुस्कुराते हुए बैठी रही जैसी तुम्हारी अदालत में बैठी थी। किसका था? पूछने पर उसने जवाब दिया कि ‘सरकार आप तो दिन-रात पहाड़ों के दौरा करते हैं। कई झरनों का पानी पीते होंगें। कभी आपको जुकाम भी हो जाता होगा। क्या आप बता सकते हैं कि किस झरने के पानी से आपको जुकाम हुआ है?’

आज इतने सालों बाद उस हत्यारिन की याद आते ही श्रीधर व्याकुल हो उठा। क्या सचमुच ही अलकनंदा की लहरों में उसने एक मासूम को बहा दिया होगा? श्रीधर ने समय देखा। आज कहाँ वह ये सिरदर्द लेकर बैठ गया। उसे क्या बस यही एक चिंता थी? बीमार पत्नी का आलसी और चिड़चिड़ा स्वभाव,  ठग दामाद और अपने ही पिता का पुतला जलाकर नेता बनने वाला पुत्र, इन सब से ही भाग रहा था श्रीधर।

तभी पी.ए. ने आकर कहा कि एक पगली-सी औरत आपसे मिलने आई है। कहती है आप ही के गाँव की है। बस दर्शन करके चली जाएगी। तब एक औरत सिर पर मैली पोटली में गुड़ की भेली बाँधे आती है। श्रीधर को लगा जैसे उसकी इच्छाशक्ति उसे यहाँ खींच लाई है। हीरावती श्रीधर के कमरे में लगे चित्रों को वैसे ही देख रही थी जैसे पच्चीस वर्ष पूर्व श्रीधर ने उसकी गुफा के चित्रों को देखा था। श्रीधर ने उसे बैठने को कहा। वह उसके पैरों के पास बैठ गई। इतने सालों बाद भी उसकी उपस्थिति श्रीधर को मोहित कर रही थी।

कितना बदल गई थी हीरावती। बालों में सफेदी, आँखों के नीचे कालिमा, गले में काली डोरी में लटके दो-तीन मोती उसकी बरसों की व्यथा कह रहे थे। वह बताती है कि अब भी वह कोढ़ी साहब के ओडयार में रहती है। श्रीधर उससे पूछ बैठता है कि ” तुमने ऐसा क्यों किया हीरावती?” जबकि वह जानता है कि वह कभी झूठ न बोलेगी। तब हीरावती बताती है कि जैसे ही उसने आँखे खोली। मैंने पहचान लिया। पहली बार अदालत में झूठी बनी। तुम्हारी ही तरह कंजी आँखें थीं। तुम्हारी ही तरह होंठ टेढ़े कर मुस्कुराया था। सोचा मैं तो बदनाम हूँ ही, तुम्हें कीचड़ में क्यों घसीटूँ? सारा गाँव तुम्हें पूजता था। बड़ा होता तो सब पहचान लेते कि किसका बेटा है।

श्रीधर चुपचाप सुनता रहा। हीरावती चली गई। न ही उसने ताना मारा, न अधिकार जताया, न लाँछन लगाया। आज अपने अन्तःकरण की अदालत में अपराधी सिर झुकाए खड़ा था। अचानक वह उठा। टोपी उतारकर फेंक दी और पंखी को ओढ़नी के जैसे लपेटकर खिड़की से कूदकर सड़क पर आ निकला। मन्दिर पहुँचकर  घण्टियों को छूते ही उनकी आवाज श्रीधर को अतीत की घाटी में ले गई। इसी मंदिर में उसने कितना कुछ मांगा था पर आज दीन-हीन बना वह केवल क्षमा मांग रहा था। उसे लगा जैसे फटा लंहगा पहने, सिर में गुड़ की भेली लिए उसकी प्रियतमा उससे सटकर बैठी गा रही है:
“कइया नी कइया , करिया नी करिया
करिए      छिमा , छिमा  मेरे   परभू!”

चुनिंदा पंक्तियाँ :

# कहीं काँगड़ा-गढ़वाल शैली की कृष्णवधू, वर्षा-मुखरित रात्रि के अभेद्य अंधकार की कुंडलियाँ कुचलती, अभिसार के पथ पर चली जा रही थी, कहीं एड़ियाँ टिकाए प्रियतम की प्रतीक्षा में द्वार पर खड़ी चौखट में मढ़ी सुप्रिया।
# जितनी बार श्रीधर उसकी दर्पपूर्ण चुनौती से जूझने को आगे बढ़ता उतनी ही बार सतर्क खड़ी, हीरावती की कांचन-सन्निभ देह की दुर्भेद्य प्राचीर उसे बिजली के सौ-सौ तारों से झनझना देती।
# बचपन में भूगोल की पुस्तक में चित्रित, अपनी इग्लू-सी हिमाच्छादित गुहा में श्रीधर बन्दी शेर की भाँति चक्कर लगाता रहता।
# पर अंधकार में ठक-ठक काँपती मानिनी की व्यथा चार कम्बलों से लदे सोने वाले को छू गई। जिसकी रूपशिखा का स्वप्न कई दिनों तक उसकी नींद में डूबी पलकों को झुलसा रहा था, वही उसी अंतहीन माघी विभावरी में उसकी जगी पलकों पर साकार होकर थिरकने लगा।
# वह अब संस्कारी , सुशिक्षित , भारद्वाज गोत्रोत्पन्न श्रीधर शर्मा नहीं था, वह तो अब सदियों के मलबे से निकला आदिकाल का गुहा-मानव था, जिसका न कोई गोत्र ही था, न कोई संस्कार।
# अपनी जन्मभूमि के सूखा-ग्रस्त इलाके का हवाई दौरा करने निकला, और यूज़ विस्मृत घाटी में खंखाड़-से ताजमहल के गुम्बद ने दबे नासूर को फिर उभार दिया।
# फटी वास्कट पर झूलती असंख्य मालाओं के बचे-खुचे दो-तीन मोती, उसके विगत यौवन के बिखरे मोतियों की ही भाँति एक मैले से काले पड़े डोरे में बंधे लटक रहे थे।
# किसने कहा है, इमर्सन ने या किसी और ने कि संसार की अदालत अभियुक्त को भले ही क्षमादान देकर मुक्त कर दे, स्वयं उसके अन्तःकरण की अदालत कभी क्षमा नहीं करती।

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