भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 3)

भगवतीचरण वर्मा चित्रलेखा सारांश भाग 2

भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 3)

भगवती जी ने इस भाग में चित्रलेखा के सौंदर्य का मनमोहक वर्णन किया है। शब्दों का चुनाव, विभिन्न उपमानों जैसे चन्द्रमा, नाग, बिजली की चमक, बादलों का गर्जन आदि का प्रयोग देखते ही बनता है। इन भागों में  चित्रलेखा और कुमारगिरि की भेंट और विरोधी सिद्धांतों को मानने वाले कैसे एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते जाते हैं का विस्तार से वर्णन है।

चौथा परिच्छेद

विशालदेव को कुमारगिरि में एक महान योगी के सारे गुण दिखाई देते हैं। एक दिन सूर्यास्त के बाद कुमारगिरि अपनी कुटिया में उसे उपासना का महत्व समझा रहे थे। तभी बाहर से आवाज़ आती है कि अपना रास्ता भटक गए यात्री रात भर के लिए आसरा चाहते हैं। कुमारगिरि उन्हें अंदर आने की अनुमति दे देते हैं। तब एक स्त्री व एक पुरूष अंदर आते हैं। स्त्री को देखकर कुमारगिरि चौंक जाते हैं और उस पुरूष से कहने लगते हैं कि उन्होंने स्त्री साथ होने की बात पहले क्यों नहीं बताई। तब वह पुरूष कहता है कि उसे नहीं पता था कि एक इंद्रियजीत योगी को एक स्त्री को केवल एक रात अपनी कुटिया में सहारा देने में संकोच होगा जबकि वह एक पुरूष के साथ है।

अब तक वह स्त्री आसन पर बैठ जाती है। उस पुरूष की बातें सुनकर कुमारगिरि के चेहरे का रंग उड़ जाता है और वे स्त्री जाति की ही कमियाँ गिनाने लगते हैं। यह सब सुनकर वह स्त्री व्यंग के साथ उन्हें प्रणाम करती है। तब कुमारगिरि ध्यान से उसकी ओर देखते हैं और देखते ही रह जाते हैं। फिर वे उस पुरूष से उनका परिचय पूछते हैं। तब वह उत्तर देता है कि वह पाटलिपुत्र का एक सामन्त बीजगुप्त है और यह स्त्री पाटलिपुत्र की सर्वसुन्दरी नर्तकी चित्रलेखा है।

तब कुमारगिरि चित्रलेखा की ओर मुड़कर उसे सुमति मिले ऐसी प्रार्थना करते हुए आशीर्वाद देते हैं। इसके जवाब में चित्रलेखा उन्हें सुमति का अर्थ समझाते हुए तर्क करती है। कुछ देर तक चले इस तर्क-वितर्क में दोनों ही एक-दूसरे की तरफ आकर्षित होते हैं। बीजगुप्त जहाँ एक ओर चित्रलेखा की विद्वता पर मुग्ध हुआ जा रहा था वहीं दूसरी ओर उसका मन एक अलग ही शंका से अशांत हो गया जैसे उसे कुमारगिरि के प्रति चित्रलेखा का आकर्षण दिख गया हो। अंत में कुमारगिरि विशालदेव से अतिथियों को उसकी कुटिया में छोड़कर आने को कहते हैं। उनके जाने पर कुमारगिरि चित्रलेखा के ज्ञान के गलत राह में होने पर दुख व्यक्त करते हैं। इधर दूसरी कुटिया में बीजगुप्त अपनी शंका चित्रलेखा पर प्रकट करता है जिसे वह निराधार बताती है पर मन ही मन वह भी सच्चाई को स्वीकार करती है।

पाँचवा परिच्छेद

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने महायज्ञ का आयोजन किया था। यज्ञ के बाद दर्शन पर तर्क करने के लिए सभी एकत्र हुए थे जिसमें उनके प्रधानमंत्री चाणक्य सहित सभी विद्वान, सामन्त, ब्राह्मण, सन्त, योगी और जनता भी उपस्थित थी। सभा को शुरू करते हुए सम्राट चाणक्य से प्रश्न करते हैं कि उनका नीतिशास्त्र धर्म के अंतर्गत आता है या नहीं? तब चाणक्य ने अपनी बात रखी और कहा कि धर्म समाज द्वारा बनाया गया है जबकि नीतिशास्त्र का आधार तर्क है। कई बार परिस्थितियों के बदलने पर धर्म का रूप भी बदल जाता है।

चाणक्य की बात समाप्त होने पर सभी शांत थे और इंतजार कर रहे थे कि इस बात का जवाब कौन देगा। तब कुमारगिरि खड़े हुए और धर्म के पक्ष में बहुत से तर्क दिए। फिर चाणक्य ने अपना पक्ष रखा। इस प्रकार दोनों में कुछ देर तर्क-वितर्क चलता रहा। तब चाणक्य ने देखा कि कुमारगिरि आँखें बंद करके विचारमग्न हैं। तब उन्हें लगा कि कुमारगिरि ने हार मान ली और अपने तर्क सभा के सामने रखकर उस वाद-विवाद का अंत कर दिया। अब नृत्य प्रस्तुति की घोषणा होती है और चित्रलेखा सभा में प्रवेश करती है। उसके आते ही वहाँ का वातावरण मोहक सुगन्ध से भर गया। उसने वहाँ उपस्थित सभी लोगों का अभिवादन  करने के बाद नृत्य करना शुरू किया। वह बिजली के समान चमक रही थी। सभी उसे मंत्रमुग्ध होकर देख रहे थे।

इसी बीच अचानक कुमारगिरि अपनी आँखें खोलते हैं। उनकी आँखों में एक दिव्य चमक है। वे खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं ईश्वर को जानता हूँ और इसी समय सभी को दिखला भी सकता हूँ। सभा में आधे लोग उनकी बात सुनते हैं और आधे नहीं क्योंकि वे नृत्य देखने में व्यस्त हैं। चित्रलेखा भी उसकी बात नहीं सुनती। तब चाणक्य सभी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि योगी कुमारगिरि का दावा है कि वे हमें ईश्वर का दर्शन करा सकते हैं इसलिए हम नृत्य को थोड़ी देर के लिए रोक देते हैं।

यह सुनकर चित्रलेखा क्रोधित हो जाती है और एक तरफ जाकर खड़ी हो जाती है। अब कुमारगिरि बीच में आकर खड़े हो जाते हैं। उनके पास की यज्ञवेदी से अग्नि-शिखा निकलकर छत की ओर बढ़ने लगती है जो सूर्य के प्रकाश के समान चमकदार है। कुमारगिरि कहते हैं कि यह सत्य है परंतु चाणक्य कहते हैं कि उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा।  इस बार लोगों को उस प्रकाश में अनेक प्राणी, पृथ्वी, वायु, आकाश भी दिखाई देते हैं। कुमारगिरि कहते हैं कि यह ईश्वर है। परंतु चाणक्य अब भी कहते हैं कि उन्हें कुछ दिखाई नहीं दिया। इसपर सारी सभा कहने लगती है कि हमने दोनों को देखा है। तब चाणक्य हार मान लेते हैं।

तभी चित्रलेखा आगे आती है और कहती है कि उसे अभी भी शंका है। उसे भी कुछ दिखाई नहीं दिया। वह कुमारगिरि से पूछती है कि क्या सचमुच उसने सत्य और ईश्वर को देखा है? दोनों की आँखें मिलती है और कुमारगिरि नहीं में उत्तर देते हैं। चित्रलेखा कहती है कि कुमारगिरि ने अपनी आत्मशक्ति का प्रयोग कर अपनी कल्पना से ईश्वर का रूप दिखाया है और जो उसकी आत्मशक्ति से प्रभावित नहीं थे उन्हें वे चीजें दिखाई नहीं दी। तब कुमारगिरि कहते हैं कि नास्तिक में आत्मशक्ति ही नहीं होती।

तब चाणक्य विजय मुकुट चित्रलेखा के सिर पर पहना देते हैं और उसे ही कुमारगिरि को दंड देने कहा जाता है। कुमारगिरि बहुत क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं कि उसे कोई दंड नहीं दे सकता। तब चित्रलेखा दंड स्वरूप अपना मुकुट उसके सिर पर रख देती है और नृत्य शुरू कर देती है। कुमारगिरि वहाँ से चले जाते हैं।

  छठा परिच्छेद

चित्रलेखा से हारने पर कुमारगिरि का मन बहुत व्याकुल हो गया। उसने मुकुट उतारकर जमीन पर फेंक दिया। वह अपनी पराजय स्वीकार नहीं कर पा रहा था। वह जमीन पर पड़े मुकुट को देखता है और सोचने लगता है कि क्या इस मुकुट पर उसका अधिकार है? उसने जीतकर भी अपना मुकुट मुझे क्यों पहना दिया। तभी वहाँ चित्रलेखा आ जाती है और नीचे पड़े मुकुट को देखकर पूछती है कि क्या योगी को विजय स्वीकार नहीं है? वह मुकुट उठाकर उसे फिर से पहना देती है। कुमारगिरि उससे कहता है कि उसे इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या वह उसे और अपमानित करने आई है? तब चित्रलेखा कहती है कि वह कुमारगिरि से दीक्षा लेने आई है। इस पर दीक्षित होने का मतलब समझाते हुए कुमारगिरि उससे सोचने का समय माँगते हैं।

तब चित्रलेखा कल फिर आने का कहकर जाने लगती है। जहाँ चित्रलेखा कुमारगिरि को अपने मोह में बांधने आई है वहीं कुमारगिरि खुद भी उसके सौंदर्य को देखकर अभिभूत हैं व इतने वर्षों का नियंत्रण टूटने को तैयार है। जाती हुई चित्रलेखा को कुमारगिरि फिर पुकारते हैं और कहते हैं कि वे उसे दीक्षा नहीं दे पाएंगे। इसपर चित्रलेखा उनसे तर्क करने लगती है। इसी तर्क-वितर्क के बीच दोनों एक-दूसरे के बहुत पास आकर खड़े हो जाते हैं। तभी विशालदेव कुमारगिरि को पुकारते हुए कुटिया में आता है जिसे देखकर कुमारगिरि चित्रलेखा से दूर हट जाता है और चित्रलेखा वापस चली जाती है।

चुनिंदा पंक्तिया :-

# प्रकाश पर लुब्ध पतंग को अंधकार का प्रणाम है।

# प्रत्येक व्यक्ति अपने सिद्धांतों को निर्धारित करता है तथा उनपर विश्वास भी करता है। प्रत्येक मनुष्य अपने को ठीक मार्ग पर समझता है और उसके मतानुसार दूसरे सिद्धांत पर विश्वास करने वाला व्यक्ति गलत मार्ग पर है।

# योगी ने नर्तकी में ज्ञान देखा और नर्तकी ने योगी में सौंदर्य।

# हमारा और तुम्हारा ईश्वर कल्पनाजनित ईश्वर है। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही समाज ने उस ईश्वर को जन्म दिया है।

# मनुष्य की अंतरात्मा केवल उसी बात को अनुचित समझती है, जिसको समाज अनुचित समझता है।

# हेमन्त के शीतल तथा शुष्क वायु में मधुमास के हल्के ताप और मतवाले सौरभ का समावेश हुआ।

# उसकी वेणी में गुथे हुए मुक्ता-जाल इस प्रकार शोभित हो रहे थे, मानो चन्द्रमा को संकट में देखकर तारकावली पंक्ति में बंधकर काले नाग से भिड़ गई थी।

अगले भाग में हम देखेंगे कि बीजगुप्त के मन में कुमारगिरि और चित्रलेखा को लेकर शंका होने लगी है। चित्रलेखा भी अपना भेद श्वेतांक पर जाहिर कर देती है। साथ ही प्रेम और वासना में अंतर को भी स्पष्ट किया गया है।

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