भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 6)

भगवतीचरण वर्मा चित्रलेखा सारांश भाग 2

भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 6)

 

भगवती जी  ने इस उपन्यास में चित्रलेखा और यशोधरा की तुलना इस तरह से की है जिससे हमें उनकी सुंदरता के साथ उनकी चारित्रिक विशेषताओं का भी भान हो जाता है।  बीजगुप्त के चरित्र की ऊंचाई उपन्यास के विकास के साथ बढ़ती जाती है।  

तेरहवाँ परिच्छेद

यशोधरा की सुंदरता नैसर्गिक थी फिर भी बीजगुप्त को उसका आकर्षण न था। वह उसका आदर तो कर सकता था पर प्रेम नहीं। उसे चित्रलेखा की आदत थी जो उसके जीवन में ऊर्जा का संचार करती थी। आवेश और आवेग दोनों ही थे। जब बीजगुप्त अपने भवन पहुँचता है उसे चित्रलेखा का पत्र मिलता है जिसमें लिखा था कि मैं तुमसे प्रेम करती हूँ। पर मेरे प्रेम ने एक योग्य व्यक्ति को अपने कर्तव्य से विमुख कर दिया। मेरे रहते तुम किसी से विवाह नहीं करोगे इसलिए अब मैं भोग-विलास को छोड़कर संयम को अपनाने जा रही हूँ। मैं कुमारगिरि से दीक्षा लेकर फिर से वैधव्य के जीवन का पालन करुँगी।

यह पढ़कर बीजगुप्त के हाथ काँपने लगते हैं। वह पत्र श्वेतांक को देकर अपने कक्ष में चला जाता है। उसे जिस बात का डर था वही हुआ। वह कह उठा – ” इन दोनों का अधिक दिनों तक साथ रहना असंभव है” उसे लगता है कि क्या आत्मा का सम्बन्ध भी स्थाई नहीं है? पर पत्र में तो लिखा है कि वह मुझसे अब भी प्रेम करती है और उसने मेरे लिए ही बलिदान दिया है।

वह सो नहीं पाता और आधी रात में ही भवन से निकलकर कुमारगिरि की कुटिया की तरफ पैदल ही चलने लगता है। जब वह कुटिया में पहुँचता है तब उजाला होने लगा है। कुमारगिरि एक तरफ ध्यान कर रहे थे और दूसरी तरफ चित्रलेखा सो रही थी। बीजगुप्त चित्रलेखा के बगल में बैठ गए। आज उन्होंने पहली बार उसे बिना साज-सज्जा के देखा। सुबह हुई और दोनों ने आँखें खोलकर बीजगुप्त को देखा। बीजगुप्त चित्रलेखा से पूछता है कि तुमने मुझसे बिना पूछे ही निर्णय कैसे ले लिया? तुम्हारे ऐसा करने से क्या मैं विवाह कर लूँगा। में केवल तुमसे प्रेम करता हूँ। पर चित्रलेखा कहती है कि मेरे प्रेम ने तुम्हारे जीवन को निरर्थक बना दिया है। तुम्हारा विवाह होना ही चाहिए। मैं तुमसे केवल शारीरिक सम्बन्ध तोड़ रही हूँ इससे हमारा आत्मिक सम्बन्ध और दृढ़ हो जाएगा। तब बीजगुप्त कहता है कि तुम गलती कर रही हो। फिर वह जाने लगा। चित्रलेखा उसे राजमार्ग तक छोड़ने आती है और उसके पैर पकड़कर क्षमा मांगती है।

चित्रलेखा कुटी में लौटकर आती है तब कुमारगिरि उससे पूछते हैं कि तुम हम दोनों से प्रेम का दावा करती हो। क्या दो व्यक्तियों से एक साथ प्रेम सम्भव है? तुम किसे धोखा दे रही हो, मुझे, बीजगुप्त को या अपने आपको? तब चित्रलेखा कहती है कि आप विश्वास रखिए, मैं आपको धोखा नहीं दूँगी।

चौदहवाँ परिच्छेद

बीजगुप्त चित्रलेखा से वियोग का दुख सहन नहीं कर पा  रहा है। इसलिए वह कुछ दिनों के लिए पाटलिपुत्र छोड़ने का निश्चय करता है। वह श्वेतांक से कहता है कि कुछ दिनों के लिए काशी चलते हैं। तुम मेरी और अपनी यात्रा की तैयारी कर लो। यह सुनकर श्वेतांक दुखी हो जाता है क्योंकि उसे यशोधरा से मिलने का अवसर नहीं मिलेगा। दूसरे दिन सुबह वह बीजगुप्त से कहता है कि क्या मैं आर्य मृत्युंजय से मिल आऊँ? मैं उनसे बिदा माँगना चाहता हूँ। बीजगुप्त मन ही मन हँसते हुए उसे जाने की आज्ञा दे देते हैं।

श्वेतांक मृत्युंजय के भवन पहुँचता है यशोधरा से मिलता है। उसे आने का कारण बताता है। सब सुनकर यशोधरा कहती है कि कल तो बीजगुप्त ने बाहर जाने की बात नहीं कही थी। फिर श्वेतांक उसे बताता है कि चित्रलेखा ने बीजगुप्त को छोड़कर कुमारगिरि से दीक्षा ले ली है। तब यशोधरा चौंक जाती है और बीजगुप्त के लिए दुख प्रकट करती है। तब अपने लिए यशोधरा में कोई भाव न देखकर और बीजगुप्त के लिए संवेदना देखकर श्वेतांक क्रोधित हो जाता है और बीजगुप्त के दोष गिनाने लगता है परन्तु यशोधरा उसकी बातों का खंडन करती है और कहती है कि मनुष्य को पहले अपनी कमजोरियों को देखकर दूर करना चाहिए।

यह सुनकर श्वेतांक समझ नहीं पता कि यशोधरा ने ये बात बीजगुप्त के लिए कही या उसके लिए क्योंकि यह लागू तो दोनों पर हो रही थी। वह धीरे से कहता है कि तुम्हारे सामने बीजगुप्त को बुरा नहीं कहना चाहिए था। यह सुनकर वह और अधिक क्रोधित हो जाती है। पर तुरंत ही उसे श्वेतांक के क्रोध का कारण समझ आ जाता है। तब वह कहती है कि मैं बीजगुप्त से प्रेम नहीं करती। और वह रोने लगती है। तब श्वेतांक उससे क्षमा माँगने लगता है और कहता है कि तुम नहीं जानती कि मैं इतना कटु क्यों हो गया? तब यशोधरा के पूछने पर वह कहता है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।  इस बात पर यशोधरा आश्चर्य प्रकट करती है और वहां से चली जाती है। तब श्वेतांक भी जाने लगता है पर यशोधरा अब मृत्युंजय के साथ वापस आती है। मृत्युंजय उससे भ्रमण पर जाने की बात पूछते हैं। तब यशोधरा भी अपने पिता से काशी चलने का अनुरोध करती है जिसे मृत्युंजय मान लेते हैं और बीजगुप्त को सन्देश देने को कहते हैं कि वे भी साथ चलना चाहते हैं। श्वेतांक वापस आकर बीजगुप्त को इस बारे में बताता है। पहले तो वह तैयार नहीं होता क्योंकि जिन कारणों से वह पाटलिपुत्र छोड़ना चाहता था उनमें से एक साथ ही जाने को तैयार है। पर बिना मन के वह इसके लिए तैयार हो जाता है।

पन्द्रहवां परिच्छेद

दूसरे दिन सभी काशी जाने के लिए रवाना हो गए। बीजगुप्त का मन अब भी अशांत है। रात हो गई है। सभी आराम करने के लिए रास्ते में एक सामन्त की वाटिका में रुकते हैं। सब सो जाते हैं पर बीजगुप्त को नींद नहीं आती। वह केवल चित्रलेखा के विषय में सोचता रहता है। सुबह होती है। वह देखता है कि यशोधरा थोड़ी दूरी पर खड़ी ओस की बूंदों से खेल रही थी। वह भी वाटिका में अपने मन को शांत करने आता है। यशोधरा उसे प्रकृति के सौंदर्य को देखने को कहती है। पर वह कहता है कि प्रकृति उसे सुंदर नहीं लगती। यशोधरा उसे कोमल पुष्पों, उनकी सुगन्ध, कोयल के स्वर की मिठास, कबूतरों के झुंड आदि दिखाकर कहती है कि काश वह हमेशा यहीं रह पाती।

तब बीजगुप्त कहता है कि प्रकृति अपूर्ण है। पुष्पों में कीट हैं, नदियों में मगरमच्छ हैं, कबूतरों को बाज झपटने आते हैं, गर्मियों में लू चलती है। इन सबसे बचाव के लिए ही तो मनुष्य ने भवनों का निर्माण किया। पशु-पक्षी तो एक-दूसरे को खाकर अपना पेट भरते हैं पर मनुष्य इन सबसे श्रेष्ठ है, वह खुद अन्न उगाकर खाता है। तब यशोधरा पूछती है कि आपने यह सब कहाँ से सीखा? बीजगुप्त कहता है कि यह मैंने अनुभवों से जाना है। फिर दोनों वापस आने लगते हैं। आते हुए यशोधरा बीजगुप्त से उसके दुख का कारण पूछती है। बीजगुप्त कहता है कि वह नहीं बता सकता। वह उसे दुखी नहीं करना चाहता।

दोनों लौट आते हैं। यशोधरा अपने पिता से बीजगुप्त के साथ हुए वार्तालाप के बारे में बताते हुए बीजगुप्त की प्रशंसा करती है जिसे सुनकर श्वेतांक उदास हो जाता है। तब यशोधरा उसका हाथ पकड़कर उसका स्वास्थ्य जाँचने लगती है। यशोधरा के हाथ पकड़ने से श्वेतांक की उदासी अपने आप ही कम होने लगती है।

जलपान के बाद बीजगुप्त आराम करने चला जाता है। तब मृत्युंजय श्वेतांक से बीजगुप्त के दुःखी दिखने का  कारण जानना चाहते हैं लेकिन वह बताने से मना कर देता है।

चुनिंदा पंक्तियाँ :

# यशोधरा की अभेद्य गम्भीरता में जीवन की एक मौन पहेली छिपी थी- उसके स्पष्ट, निश्छल तथा कवित्वहीन वार्तालाप में उस साधना का समावेश था, जिसका बीजगुप्त केवल आदर कर सकता था, जिसको अपना नहीं सकता था।
# “ये पुष्प कोमल हैं? ठीक है; पर इनमें काँटे भी तो हैं। न जाने कितने छोटे-छोटे भुनगे इन फूलों के अंदर घुसे हुए हैं। रही इनकी कोमलता तथा इनकी सुगन्ध, ये क्षणिक हैं। फिर  इनकी सुगन्ध किस काम की? एकान्त में ये अपना सौरभ व्यर्थ गंवा देते हैं।
# मनुष्य कर्ता है, पैदा होकर अकर्मण्यता का जीवन व्यतीत करके मर जाने के लिए नहीं बनाया गया है; वह बनाया गया है कर्म करने के लिए।
# दूसरों के दोषों को देखना सरल होता है, अपने दोषों को न समझना संसार की एक प्रथा हो गई है। मनुष्य वही श्रेष्ठ है, जो अपनी कमजोरियों को जानकर उनको दूर करने का उपाय कर सके।

अगले भाग में हम देखेंगे कि जहाँ एक तरफ चित्रलेखा और कुमारगिरि अपने स्वभाव से विपरीत व्यवहार करते हैं वहीं दूसरी ओर ऐसा लगता है जैसे बीजगुप्त और यशोधरा की घनिष्ठता बढ़ रही है।

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