भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 7)

भगवतीचरण वर्मा चित्रलेखा सारांश भाग 2

भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 7)

भगवतीचरण वर्मा चित्रलेखा सारांश भाग 2

भगवती जी ने इस उपन्यास के माध्यम से बताया है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रेम के अर्थ अलग-अलग हो सकते हैं। प्रेम कभी उसे बहुत ऊपर उठा देता है तो कभी नीचे गिरने पर भी मजबूर कर देता है क्योंकि प्रेम के आगे किसी का बस नहीं चलता।

सोलहवाँ परिच्छेद

चित्रलेखा इतनी आकर्षक थी कि कोई भी उसपर मोहित हो जाए। कुमारगिरि की साधना में इतना बल नहीं था कि वह खुद को रोक पाता। कुमारगिरि चाहकर भी चित्रलेखा से ध्यान नहीं हटा पा रहे थे। वह ध्यान लगाने बैठते थे पर ध्यान लगा नहीं पाते थे।  परन्तु अब चित्रलेखा की भावना बदल गई थी। वह सचमुच विराग के मार्ग को अपनाना चाहती थी। वह कुमारगिरि के ध्यान में बैठ जाने के बाद ही कुटिया में जाती थी जिससे कुमारगिरि को बाधा न हो।

एक दिन रात में कुमारगिरि ध्यान लगाने बैठ गए। तब चित्रलेखा अंदर आई। पर उसके कदमों की आहट सुनते ही कुमारगिरि ने आँखें खोल दी। तब चित्रलेखा वहाँ से जाने लगी पर कुमारगिरि ने उसे रोक लिया और कहने लगे कि समाधि में मन नहीं लगता। अपने मन को स्थिर रखना कठिन होता जा रहा है। अब तक मैंने निराकार की उपासना की परन्तु पता नहीं क्यों अब मेरा मन कहता है-साकार। यह सुनकर चित्रलेखा काँप उठी। उसे योगी का शांत और तेजस्वी चेहरा दूषित नजर आने लगा।

फिर कुमारगिरि ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहने लगा कि तुमने इस साकार की भावना को मेरे मन में जगाया है इसलिए तुम्हें इसमें मेरा साथ देना होगा। उसने चित्रलेखा को कसकर पकड़ लिया और कहा कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। चित्रलेखा उससे अलग हो गई और कहा कि आप अपने मार्ग से भटक रहे हैं। यह सुनकर कुमारगिरि चौंक कर पीछे हट गया और चित्रलेखा से क्षमा माँगकर बाहर चला गया।

चित्रलेखा वहीं बैठकर रोने लगी। उसे बुरा लग रहा था कि वह खुद भी गिरी और दूसरे को भी गिराया। अब वह वहाँ से जाना चाहती थी। इधर कुमारगिरि को अपनी निर्बलता पर दुख हो रहा था। वे अंधेरे में चलते हुए दूर आ गए थे। वे खुद को बचाना चाहते थे। तभी उनके मन ने कहा कि क्या वे कायर हैं? अपनी निर्बलता पर विजय पाना ही सबसे बड़ी साधना है। तब कुमारगिरि रुक गए और लौट आए।

सत्रहवाँ परिच्छेद

सुबह चित्रलेखा उठी तो उसने देखा कुमारगिरि सो रहे थे। बाहर आकर उसने देखा कि विशालदेव प्रार्थना कर रहा था। वह सोचने लगी कि क्या उसका यहाँ रहना ठीक है? क्या वह बीजगुप्त के पास वापस जा सकती है? क्या बीजगुप्त उसे स्वीकार करेगा? ये सारे प्रश्न उसके मन-मस्तिष्क में घूम रहे थे? वह विशालदेव के पास गई। विशालदेव उसे अपने पास आता देखकर खड़ा हो गया। चित्रलेखा उससे कहती है कि मुझे लगता है कि मैंने यहाँ आकर बहुत बड़ी गलती की है। मैंने यहाँ आकर खुद को गिराया और कुमारगिरि को भी गिरा रही हूँ। इसलिए इस पाप से बचने में मुझे तुम्हारी सहायता चाहिए। तब विशालदेव कहता है कि वह इसके लिए तैयार है। चित्रलेखा कहती है कि वह बीजगुप्त के भवन जाकर श्वेतांक से मिले और कहे कि मैं उससे मिलना चाहती हूँ। विशालदेव कहता है कि वह आज ही चला जाएगा। इसी बीच कुमारगिरि कुटी से बाहर आते हैं और दिनभर नहीं लौटते।

शाम के समय विशालदेव पाटलिपुत्र से लौटकर चित्रलेखा के पास आता है और बताता है कि बीजगुप्त तीर्थयात्रा के लिए काशी गए हैं। यह सुनकर चित्रलेखा दुखी हो जाती है। थोड़ी देर शांत रहने के बाद कहती है कि शायद यह मेरे पापों का फल है। मैंने बीजगुप्त को छोड़ा इसलिए भगवान मुझे ज्ञान दे रहे हैं। अब कुछ नहीं हो सकता। और वह गुस्से में काँपने लगती है। तब विशालदेव कहता है कि आप अपने पुराने जीवन में क्यों नहीं लौट जाती। तब चित्रलेखा हँसते हुए कहती है कि मैं आगे बढ़ आई हूँ। अब पीछे कैसे जा सकती हूँ। कहकर वह आगे चली चली जाती है।

आगे जाकर उसने देखा कि कुमारगिरि बैठे हुए हैं। उसने उनसे दिनभर कुटी ना आने का कारण पूछा। तब वह कहते हैं कि कुटी में जाना भयानक है। तब चित्रलेखा इसका उपाय पूछती है। वह कहते हैं कि मैं साकार की उपासना करने लगा हूँ जो तुम्हारी सहायता के बिना असम्भव है। चित्रलेखा कहती है कि साकार की उपासना भ्रम है। तब वह कहते हैं कि इसका निर्णय करना मेरा काम है। तुम मेरी शिष्या हो। तुम्हारा कर्तव्य है कि मेरी बात मानो। इतना कहते हुए वे तनकर खड़े हो गए। इस बार चित्रलेखा डरती नहीं है बल्कि कहती है कि वह इतनी असहाय नहीं है जिस पर तुम शासन कर सको। तुम जिसे बात मानने कह रहे हो तुमने तो स्वयं को उसका दास बना लिया है।

तब कुमारगिरि धीमे पड़ गए और कहने लगे कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। चित्रलेखा यह सुनकर हँसने लगी और कहने लगी कि में तुमसे प्रेम नहीं करती। मेरी इच्छा केवल तुम पर अधिकार जमाने की थी और मैं इसमें सफल भी हो गई। स्त्री कभी भी अपने से निर्बल मनुष्य से प्रेम नहीं करती। स्त्री उससे प्रेम करती है जो उस पर विजय पा लेता है। कुमारगिरि ने उसकी बात सुनी। उन्हें अपनी कमजोरी का अनुभव हुआ। वे कहते हैं कि तुम ठीक कहती हो। तुम्हारे माध्यम से ईश्वर ने मेरा घमंड तोड़ा है। पर भविष्य में तुम मुझे निर्बल न पाओगी।

तब चित्रलेखा कहती है कि वह आश्रम छोड़ना चाहती है। कुमारगिरि कहते हैं कि तुम चली जाओगी तो मैं विजय किस पर प्राप्त करूँगा? तुम्हें मेरे साथ ही रहना होगा। इस पर चित्रलेखा कहती है कि तुम्हें मुझ पर नहीं बल्कि खुद पर ही विजय प्राप्त करनी है। पर कुमारगिरि इस बात पर सहमत नहीं होते और चित्रलेखा से अनुरोध कर उसे रोक लेते हैं।

अठारहवाँ परिच्छेद

बीजगुप्त काशी अपने मन को शांत करने आया था पर ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि अब चित्रलेखा की जगह यशोधरा आ गई थी। एक दिन सभी बैठकर वार्तालाप कर रहे थे। मृत्युंजय ने कहा कि मेरी इच्छा है कि मैं काशी में ही वास करूँ पर मेरी जिम्मेदारी अभी खत्म नहीं हुई है। यह कहते हुए वे बीजगुप्त की ओर देखते हैं। तब वह कहता है कि गृहस्थ और सन्यासी में नहीं के बराबर का अंतर होता है। इसी तरह बातें करते हुए बीजगुप्त की दृष्टि यशोधरा से मिलती है और कुछ देर के लिए दोनों एक-दूसरे को देखने लगते हैं। यह देखकर श्वेतांक का मुंह पीला पड़ जाता है।

अब यशोधरा बीजगुप्त से पूछती है कि उनका यहाँ कब तक रहने का विचार है? बीजगुप्त कहता है कि ठीक से नहीं कह सकता। कभी लौटने की इच्छा होती है तो दूसरे ही क्षण रुकने को जी चाहता है। फिर बीजगुप्त यही प्रश्न मृत्युंजय से करते हैं। तब वह कहते हैं कि वे तो यशोधरा की इच्छा से आए थे तो जाना भी उसी पर निर्भर है। तब बीजगुप्त ने यशोधरा की ओर देखा। आज पहली बार उसे यशोधरा का सौंदर्य दिखाई दिया। वे दोनों ही एक-दूसरे को एकटक देखने लगे जो श्वेतांक को असहनीय हो गया। तब उसने बीजगुप्त से पूछा कि क्या आज नगर घूमने नहीं जाना है? यह सुनते ही बीजगुप्त और यशोधरा चौंक जाते हैं और अपनी दृष्टि हटा लेते हैं। बीजगुप्त और मृत्युंजय जाने से मना कर देते हैं। तब यशोधरा और श्वेतांक घूमने चले जाते हैं।

कुछ देर बाद बीजगुप्त का भी मन नहीं लगता तो वे मृत्युंजय को साथ लेकर घूमने निकल पड़ते हैं। जब उनका रथ गंगा किनारे पहुँचता है तो वे देखते हैं कि यशोधरा और श्वेतांक नौका पर चढ़कर जाने वाले हैं। वे श्वेतांक को पुकारते हैं पर वह सुन नहीं पाता पर यशोधरा उन्हें देख लेती है और श्वेतांक को बताती है। बीजगुप्त को आता देखकर श्वेतांक का मुंह बिगड़ जाता है और वह धीरे से कहता है-नाश हो! यशोधरा यह सुन लेती है और उसे संयम में रहने को कहती है। तब वह कहता है कि संयम और प्रेम में विरोध होता है।

अब तक बीजगुप्त और मृत्युंजय भी वहाँ पहुँच जाते हैं। सभी नौका पर सवार हो गंगा की गोद में चलने लगते हैं। तब यशोधरा श्वेतांक से प्रश्न करती है कि तुम्हें काशी अच्छा लगता है या पाटलिपुत्र! वह कहता है पाटलिपुत्र क्योंकि वहाँ जैसा ऐश्वर्य यहाँ नहीं है। फिर यशोधरा वही प्रश्न बीजगुप्त से करती है। वह कहता है कि मुझे आजकल काशी अच्छा लगता है। तब वह उससे आजकल का अर्थ पूछती है। वह कहता है कि किसी भी स्थान का प्रिय लगना परिस्थिति की अनुकूलता पर निर्भर है। और वह इस पक्ष में कई तर्क देता है जिसे सुनकर यशोधरा बीजगुप्त की प्रशंसा करती है और हँसते हुए श्वेतांक को उनसे सावधान रहने की हिदायत देती है।

इसी प्रकार बातें करते हुए बीजगुप्त की आँखें यशोधरा से मिल जाती हैं। दोनों एक-दूसरे को देखने लगते हैं। इस बार बीजगुप्त के ह्रदय की धड़कन बढ़ जाती है। वह यशोधरा से आँखें हटा लेता है और श्वेतांक की ओर देखता है। उसे देखकर पता चलता है कि वह उसकी भावनाओं को पढ़ सकता है। उस श्वेतांक के साथ खुद पर भी क्रोध आता है। वह श्वेतांक से कुछ कहना चाहता है पर कहता नहीं बल्कि उसे पाटलिपुत्र लौटने के लिए प्रबन्ध करने को कहता है। बीजगुप्त के इस अचानक विचार बदलने की बात से मृत्युंजय और यशोधरा दोनों को आश्चर्य होता है। फिर भी यशोधरा दूसरे दिन शाम तक प्रबन्ध कर लेने पर राजी हो जाती है।

चुनिंदा पंक्तियाँ :

# ‘ब्रह्म’ से ‘अनुराग’ के अर्थ होते हैं ब्रह्म से पृथक वस्तु की उपेक्षा, अथवा उसके प्रति विराग। पर वास्तव में यदि देखा जाए, तो विरागी कहलाने वाला व्यक्ति वास्तव में विरागी नहीं, वरन ईश्वरानुरागी होता है।
# निर्जन की शान्ति में, सात्विकता की आभा में, विश्वास के पर्दे पर उसने सुख देखा, जीवन के आमोद-प्रमोद से वह ऊब उठी थी, अतिसुख उसके लिए उत्पीड़न हो गया था।
# वह मलय समीरण से अठखेलियाँ करने आई थी, ज्वालामुखी में जलने न आई थी।
# पुरूष पर आधिपत्य जमाने की इच्छा स्त्री के पुरूष से प्रेम का द्योतक नहीं है, प्रकृति ने स्त्री को शासन करने के लिए नहीं बनाया है। स्त्री शासित होने के लिए बनाई गई है, आत्म-समर्पण करने के लिए। …….. जिस मनुष्य पर उसने आधिपत्य जमा लिया , वह मनुष्य उसके प्रेम का अधिकारी हो ही नहीं सकता।
# “आर्य! रत और विरत, अनुरागी और विरागी तथा गृहस्थ और सन्यासी में भेद बहुत थोड़ा है और जो कुछ है भी, वह नहीं के बराबर है।”
# हम स्थान को पसन्द नहीं करते – स्थान तो केवल एक जड़ पदार्थ है; हम पसन्द करते हैं वातावरण को, जिसके हम अभ्यस्त हो जाते हैं।

अगले भाग में हम देखेंगे कि बीजगुप्त यशोधरा के विषय में क्या निर्णय लेते हैं और कुमारगिरि अपनी निर्बलता पर सचमुच विजय पाना चाहते हैं या उनका हृदय उन्हें धोखा दे रहा है।

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