भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 8)

भगवतीचरण वर्मा चित्रलेखा सारांश भाग 2

भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 8)

 

भगवती जी ने इस उपन्यास में स्त्री-पुरूष सम्बन्धों का जिस गहराई से वर्णन किया है वह चिंतन करने योग्य है। जहाँ हम सात जन्मों की बात करते हैं वहीं भगवती जी मनुष्य को किसी एक व्यक्ति से न बांधकर हमेशा अपने कर्म की ओर अग्रसर रहने की सीख देते दिखाई देते हैं।

उन्नीसवाँ परिच्छेद

बीजगुप्त खुद पर हैरान था कि वह यशोधरा की ओर न चाहते हुए भी आकर्षित हो रहा था। वह काशी चित्रलेखा को भुलाने आया था। वह सो नहीं पा रहा था। उसके मन में निरंतर विचार उथल-पुथल मचाए हुए थे। कभी वह सोचता कि चित्रलेखा के बिना उसके जीवन का कोई लक्ष्य ही नहीं है तो कभी सोचता कि चित्रलेखा ने उसे छोड़ा है, उसने नहीं। तो मैं दुखी होकर अपना जीवन क्यों नष्ट करूँ। मुझे अपना कर्म करना चाहिए। यशोधरा हर तरह से मेरे योग्य है। पर क्या मृत्युंजय मेरा निवेदन स्वीकार करेंगे। अब बहुत देर हो गई है। चित्रलेखा ही मेरे जीवन में है।

फिर वह उठ खड़ा हुआ और गंगा किनारे चल दिया। उसने देखा कि तीन व्यक्ति वहाँ बैठकर बातें कर रहे थे। बीजगुप्त भी एक कोने में जाकर बैठ गया। उन तीन व्यक्तियों में एक सन्यासी था और अन्य दो पिता और पुत्र थे। नवयुवक अपनी पत्नी के मर जाने पर दूसरा विवाह नहीं करना चाहता था और सन्यास लेना चाहता था। उसके पिता और सन्यासी उसे ऐसा करने से मना कर रहे थे। सन्यासी उसे समझाते हैं कि स्त्री और पुरूष का सम्बन्ध केवल संसार में होता है। संसार से अलग दोनों ही भिन्न-भिन्न आत्माएं हैं। प्रेम आत्मा की घनिष्ठता है जिसका अधिक महत्व नहीं है। उसके टूटने पर अपने को दुखी कर लेना बुद्धिमानी नहीं है।
अपने कर्मों से विमुख होकर तपस्या करना एक तरह से आत्महत्या है।

नवयुवक उनकी बात मान लेता है और उन्हें प्रणाम कर अपने पिता के साथ चला जाता है। तब बीजगुप्त उनके पास आता है और उनसे प्रश्न करता है कि अपने दुख को कृत्रिम उपायों द्वारा दबाने से क्या आत्मा का हनन नहीं होता? तब सन्यासी उसे समझाते हैं कि यह अप्राकृतिक जरूर है पर स्वाभाविक है। बीजगुप्त की दुविधा का निवारण काफी हद तक हो गया था। वह वापस आकर सो गया।

दोपहर के समय मृत्युंजय और बीजगुप्त बातें करते रहते हैं। यशोधरा और श्वेतांक बाजार से कुछ वस्तुएं लेकर आते हैं और दोनों को दिखाते हैं। यशोधरा एक मणिमाला दिखाती है जिसे वह अपने पिता को दिखाने लाई है। इस पर मृत्युंजय कहते हैं कि अगर तुम्हें पसन्द है तो ले लो। तब बीजगुप्त यशोधरा से फिर से उसके साथ बाजार चलने का आग्रह करते हैं। भोजन पश्चात बीजगुप्त, श्वेतांक और यशोधरा बाजार जाते हैं। सबसे पहले वे जौहरी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ बीजगुप्त अपने और श्वेतांक के लिए हीरे की अंगूठियां लेते हैं फिर वे यशोधरा के लिए बहुत कीमती मोतियों का हार निकलवाते हैं जो उसे बहुत पसंद आता है। बीजगुप्त हार लेकर अपनी तरफ से भेंट कहकर यशोधरा के गले में हार पहना देते हैं।

बीसवाँ परिच्छेद

कुमारगिरि चित्रलेखा के व्यवहार से अचंभित थे पर उससे भी अधिक आश्चर्य उन्हें अपने व्यवहार को देखकर होता था। वे चित्रलेखा से दूर रहना चाहते थे पर ऐसा हो नहीं रहा था। वे एक नर्तकी से हार गए थे और यह बात उनके लिए असहनीय होती जा रही थी। अब वे चित्रलेखा को अपने वश में करना चाहते थे। उन्हें समझ आने लगा कि जब तक चित्रलेखा बीजगुप्त से प्रेम करती रहेगी वह उनसे प्रेम नहीं कर सकती। इसलिए उन्होंने बीजगुप्त को रास्ते से हटाने का सोचा।

एक रात उन्होंने चित्रलेखा को अपने पास बैठने को कहा। फिर बीजगुप्त की काशी यात्रा और साथ में यशोधरा के जाने की बात कही जिसे सुनकर चित्रलेखा चौंक गई। तब कुमारगिरि ने कहा कि तुमने तो बीजगुप्त को छोड़ा ही इसीलिए था ताकि वह गृहस्थ जीवन व्यतीत करे। चित्रलेखा कहती है कि वह बीजगुप्त के बारे में बात ना करें।
पर कुमारगिरि उसे उसके बीजगुप्त के प्रति किये व्यवहार की याद दिलाते हुए कहते हैं कि बीजगुप्त ने यशोधरा से विवाह कर लिया है। चित्रलेखा को इसपर विश्वास नहीं होता। वह बहुत दुखी हो जाती है। कुमारगिरि चित्रलेखा की मनःस्थिति का लाभ उठाते हैं और उसे आत्मसमर्पण को मजबूर कर देते हैं।

सुबह चित्रलेखा उठती है तो बहुत परेशान रहती है। उसे खुद पर क्रोध आता है कि उसने बीजगुप्त को छोड़ा ही क्यों। वह कुमारगिरि को देखती है जो अभी भी सो रहे थे। उनके चेहरे से अब पहले वाला तेज जा चुका था। कुमारगिरि का मुख उसे भयानक लगता है। वह बाहर आ जाती है। विशालदेव उसे परेशान देखकर पूछता है कि क्या वह जाकर बीजगुप्त का पता लगाए। चित्रलेखा कहती है कि उनके आने या न आने से उसे कोई मतलब नहीं है। पर विशालदेव कहता है कि फिर भी मैं अपने गुरूभाई श्वेतांक से मिलने जाऊंगा।

दोपहर के समय वह नगर से लौटकर आता है। वह चित्रलेखा को बताता है कि श्वेतांक यशोधरा से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है। यह सुनकर चित्रलेखा चौंक जाती है। विशालदेव यह भी कहता है कि श्वेतांक ने कहा कि बीजगुप्त यशोधरा की ओर आकर्षित अवश्य हुए थे पर वे अभी भी तुमसे ही प्रेम करते हैं। तब चित्रलेखा उसे यह बताने के लिए धन्यवाद देती है और कहती है कि वह यहाँ से चली जाएगी। फिर वह अंदर कुटी में चली जाती है। उसे देखते ही कुमारगिरि उसे प्यार से अपने पास बुलाते हैं परंतु चित्रलेखा उन्हें घृणा और पश्चाताप से देखकर धिक्कारती है और ढोंगी आदि अनेक अपशब्दों का प्रयोग करती है। कुमारगिरि को जब यह अपमान असहनीय हो जाता है तो वे भी गुस्से में खड़े होकर कहते हैं कि मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। तुमने मुझे पराजित किया था, अब मैंने भी तुम्हें पराजित किया। मुझे कहने से पहले अपने आप को देखो। इस तरह उसे जाने का कहकर वे बाहर चले जाते हैं।

इक्कीसवाँ परिच्छेद

मृत्युंजय के यहाँ से लौटने पर श्वेतांक बीजगुप्त से कहता है कि उसे विशालदेव मिला था जो बता रहा था कि चित्रलेखा अच्छी है। क्या वह उससे मिल आए? बीजगुप्त उसे मना कर देता है पर वह चित्रलेखा को प्रसन्न जानकर और भी दुखी हो जाता है। पाटलिपुत्र वापस आकर भी बीजगुप्त की बैचेनी कम नहीं होती। चित्रलेखा के चले जाने से उसे अकेलापन महसूस होता था। पर अब वह यशोधरा से विवाह करना चाहता था पर मृत्युंजय से कह नहीं पा रहा था।

इधर श्वेतांक को पहली बार बीजगुप्त की आवाज में चित्रलेखा के प्रति उदासीनता का आभास होता है। उस दिन वह भी सो नहीं पाता। दूसरे दिन सुबह बीजगुप्त प्रसन्न था क्योंकि उसने मृत्युंजय से बात करने का निर्णय ले लिया था। वह जलपान करने बैठा पर उसे श्वेतांक कहीं दिखाई नहीं दिया। उसने श्वेतांक को बुलवाया। श्वेतांक आया। उसका मुँह पीला पड़ा हुआ था। बीजगुप्त ने ऐसा देखकर उससे उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछा। उसने कहा कि मेरी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। आप ही केवल मेरा कल्याण कर सकते हैं। मैं यशोधरा से विवाह करना चाहता हूँ। बीजगुप्त यह सुनकर चौंक जाता है। वह कहता है कि इसके लिए तुम्हें मेरी क्या आवश्यकता है। श्वेतांक कहता है कि यह प्रस्ताव मृत्युंजय के सामने आप रखें। बीजगुप्त कहता है कि तुम जानते हो कि चित्रलेखा मेरे जीवन से जा चुकी है और मैं यशोधरा से विवाह करना चाहता हूँ। श्वेतांक की आँखों में आँसू आ जाते हैं। वह बीजगुप्त से क्षमा माँगकर वहाँ से चला जाता है।

अब बीजगुप्त के मन में फिर से हलचल शुरू हो जाती है। पहले वह सोचता है कि क्या मुझे सुखी रहने का अधिकार नहीं है? फिर सोचता है कि श्वेतांक को यशोधरा से प्रेम करने का अधिकार किसने दिया? फिर मन शांत होने पर उसे लगता है कि श्वेतांक अपराधी नहीं है। प्रेम एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। उसे कैसे पता होगा कि चित्रलेखा के लिए मेरा प्रेम मर गया। यह सोचते ही उसका हृदय परिवर्तन हुआ और वह सोचने लगा कि क्या प्रेम अस्थायी है? मैं यह क्यों कर रहा हूँ?

रथ आ गया था। वह मृत्युंजय के भवन की ओर जाने लगा। रास्ते भर भी उसे यही विचार आता रहा कि वह अपना दुख दूर करने के लिए विवाह करना चाहता है जबकि वह यशोधरा से प्रेम नहीं करता। वह मृत्युंजय के भवन पहुँचकर मृत्युंजय के सामने यशोधरा का विवाह श्वेतांक से करने का प्रस्ताव रखता है। इस प्रस्ताव से मृत्युंजय आश्चर्य में पड़ जाते हैं। वे कहते हैं कि श्वेतांक योग्य तो है पर संपन्न नहीं है। इसलिए वह ये प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकते। तब बीजगुप्त कहता है कि मैं अपनी सारी संपत्ति श्वेतांक को दान कर दूँगा और अपनी सामन्त की पदवी भी। तब तो आप मना नहीं करेंगे। मृत्युंजय उसे बार-बार अपनी बात पर विचार करने को कहते हैं पर बीजगुप्त अपनी कही बात पर अटल रहता है।

बीजगुप्त वापस आता है। वह श्वेतांक के पास जाता है। श्वेतांक की चादर अब भी आँसुओ से भीगी थी। वह श्वेतांक को सारी बात बताता है जिसे सुनकर श्वेतांक हतप्रभ रह जाता है और बीजगुप्त से क्षमा माँगते हुए ऐसा करने से मना करता है। बीजगुप्त उसे समझाता है कि जो होना था हो गया। अब तुम इस वैभव का आनन्द लो।

चुनिंदा पंक्तियाँ:

# क्या मनुष्य का कोई लक्ष्य भी है? कोई भी व्यक्ति बता सकता है कि वह क्या करने आया है, क्या करना चाहता है और क्या करेगा? यह सम्भव नहीं है। मनुष्य परतंत्र है। परिस्थितियों का दास है, लक्ष्यहीन है।
# कृत्रिमता को हमने इतना अधिक अपना लिया है कि अब वह स्वयं ही प्राकृतिक हो गई है। वस्त्रों का पहनना अप्राकृतिक है, जो भोजन हम करते हैं उस भोजन का करना अप्राकृतिक है, यह भोग-विलास अप्राकृतिक है, यह ऐश्वर्य ही अप्राकृतिक है। प्राकृतिक जीवन एक भार है- उस जीवन में हलचल लाने के लिए ही तो ये खेल-तमाशे, नाच-रंग, उत्सव इत्यादि मनुष्य ने बनाए हैं। और अब हम इन्हीं सबको जीवन कहने लगे हैं।
# तुमने वासना के आवेश में आकर पवित्र प्रेम को ठुकरा दिया था- तुमने मुझमें कुछ देखा और तुम मेरी ओर आकर्षित हो गईं! उस समय तुममें पशुता की प्रवृत्ति प्रबल हो उठी थी- तुमने मनुष्यता को तिलांजलि दे दी थी।

इसके अगले और अंतिम भाग में हम देखेंगे कि श्वेतांक के विवाह पश्चात बीजगुप्त और चित्रलेखा का क्या होता है। साथ ही महाप्रभु रत्नाम्बर के शिष्य पाप को कैसे परिभाषित करते हैं।

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