भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा (सारांश-भाग 9)

भगवतीचरण वर्मा चित्रलेखा सारांश भाग 2

भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा (सारांश-भाग 9)

भगवती जी ने उपन्यास का नाम चित्रलेखा रखा क्योंकि पूरा कथानक ही इस चरित्र के आसपास चलता है और अंत तक ऊँचाई प्राप्त करने में सफल होता है पर बीजगुप्त इस कथा का वो पात्र है जिसका व्यक्तित्व कभी भी पतन की ओर जाता नहीं दिखाई देता बल्कि अपने साथ दूसरों की गरिमा में भी वृद्धि करता है।        

बाइसवाँ परिच्छेद

चित्रलेखा वापस आ गई परन्तु बीजगुप्त से मिलने नहीं गई। वह खुद को उसका अपराधी मानती थी। बीजगुप्त से अलग रहने पर उसे अनुभव हुआ कि वह उससे कितना प्रेम करती थी। कुमारगिरि को आत्मसमर्पण करने के कारण वह खुद को भ्रष्ट मानने लगी थी और बीजगुप्त को धोखा नहीं देना चाहती थी। वह पश्चाताप की अग्नि में जल रही थी।

एक दिन श्वेतांक उससे मिलने आता है। वह चित्रलेखा के बदले हुए रूप को देखकर आश्चर्य में पड़ जाता है। वह पहचान में नहीं आ रही थी। चित्रलेखा उससे बीजगुप्त के विषय में पूछती है। वह बताता है कि वे अच्छे हैं और उनमें बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है। उन्होंने यशोधरा से विवाह नहीं किया। उसका विवाह मुझसे होने वाला है। मैं उसी का निमंत्रण देने आया हूँ। पहले मृत्युंजय अपनी पुत्री का विवाह मुझसे नहीं करना चाहते थे क्योंकि मैं निर्धन था। तब आर्य बीजगुप्त ने अपनी सम्पत्ति और पदवी मुझे दान कर दी।

यह सुनकर चित्रलेखा की आँखों में आँसू आ जाते हैं। श्वेतांक उससे कहता है कि विवाह रविवार को सम्पन्न होगा और उसमें आपको आना होगा। पर चित्रलेखा कहती है कि वह दूसरे दिन आएगी। तब श्वेतांक उसे बताता है कि भोज के बाद आर्य बीजगुप्त देश-भ्रमण को निकल जाएंगे।

श्वेतांक का विवाह हो गया। बीजगुप्त स्वयं सबका स्वागत करता है। चित्रलेखा का न आना उसे बहुत खला। भोजन के बाद सम्राट स्वयं बीजगुप्त की प्रशंसा करते हैं। इसके बाद बीजगुप्त वहाँ से जाने लगता है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक उसे भारी मन से विदाई देते हैं। आज बीजगुप्त के मुख पर एक तेज दिखलाई पड़ता है।

बीजगुप्त धीरे-धीरे नगर में भिखारी के समान अकेला चल रहा है। अचानक उसे किसी के पैरों की आहट सुनाई देती है। वह पीछे मुड़कर देखता है। तब चित्रलेखा उसके पैरों में गिर पड़ती है। उसे देखकर बीजगुप्त पीछे हट जाता है और कठोर स्वर में उसे जाने को कहता है। वह कहती है कि वह उसके चरणों की धूल लेने आई है। बीजगुप्त कहता है कि अब सबकुछ समाप्त हो चुका है। मेरे पास कुछ भी नहीं है। मुझे जाने दो। पर चित्रलेखा कहती है कि मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगी। एक दिन के लिए मेरे अतिथि बन कर रहो। यदि जाना है तो कल चले जाना।

दोनों चित्रलेखा के भवन पहुँचते हैं जहाँ वह बीजगुप्त के सोने का प्रबंध कराकर सुबह बात करने का कहकर चली जाती है। बीजगुप्त उसे देखता रह जाता है। सुबह चित्रलेखा आती है और बीजगुप्त से उसका चरणामृत देने को कहती है। बीजगुप्त इसका कारण पूछता है। वह कहती है कि इससे वह खुद को पवित्र करना चाहती है। वह बीजगुप्त को अपने साथ आश्रम में हुई घटना बताती है और उससे क्षमा माँगती है। बीजगुप्त कहता है कि प्रेम में कुछ भी अपराध नहीं होता तो फिर क्षमा कैसी। फिर भी यदि तुम कहती हो तो मैं कह देता हूँ- मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ। तब चित्रलेखा कहती है कि तब तुम मुझे स्वीकार कर लो। मेरी सारी संपत्ति तुम्हारी है। तब बीजगुप्त कहता है कि यह संपत्ति मेरे किसी काम की नहीं है। मैं तुम्हें केवल एक भिखरिणी के रूप में ही स्वीकार कर सकता हूँ। चित्रलेखा कहती है कि तब ऐसा ही होगा। अब केवल प्रेम ही हमारा आधार होगा।  चित्रलेखा के मुख पर कांति आ जाती है और दोनों खुद को सुखी अनुभव करते हैं।

उपसंहार

एक वर्ष बाद! श्वेतांक अब गृहस्थ जीवन जी रहा है और विशालदेव ने योग की दीक्षा ग्रहण कर ली है। महाप्रभु रत्नाम्बर श्वेतांक और विशालदेव से प्रश्न करते हैं कि बताओ बीजगुप्त और कुमारगिरि में से कौन पापी है? श्वेतांक बीजगुप्त को देवता और कुमारगिरि को पापी बताता है जबकि विशालदेव कुमारगिरि को अजेय योगी और बीजगुप्त को वासना का दास बताता है। तब रत्नाम्बर कहते हैं कि पाप कुछ भी नहीं है।

मनुष्य परिस्थितियों के अनुसार अपनी अन्तःप्रेरणा से कार्य करता है। सभी को सुख की चाह है और और सभी के लिए सुख की परिभाषा अलग है। वैसे ही सभी के लिए पाप को देखने का दृष्टिकोण भी अलग है। इसलिए संसार में पाप को परिभाषित नहीं किया जा सकता। फिर वे दोनों को सुखी जीवन का आशीर्वाद देते हैं।

चुनिंदा पंक्तियाँ

# उसने अपराध किया था- उस अपराध के फलस्वरूप उसे निराशापूर्ण वेदना की असहय ज्वाला में जलना ही इष्ट था।
# बीजगुप्त वैभव तथा शक्ति के उस जमघट में से शांति और त्याग की गुरुता के साथ निकल गया। 
# हाय रे! यदि प्रेम मर ही जाता, तो मैं यह वैभव काहे को छोड़ता ? चित्रलेखा, मैं चाहता हूँ कि मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति प्रेम मर जाता; पर यह न हो सका- यह न हो सकेगा!

भगवती जी ने यद्यपि इस उपन्यास के माध्यम से अपना यथेष्ट उद्देश्य प्राप्त कर लिया हो पर फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि विशालदेव के सामने कुमारगिरि की मानसिकता उजागर होनी चाहिए थी तभी तो वह पाप के विषय में अपनी स्पष्ट धारणा बनाने में सफल हो पाता।

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