दिव्य प्रकाश दुबे – अक्टूबर जंक्शन (पुस्तक समीक्षा)

दिव्य प्रकाश दुबे - अक्टूबर जंक्शन (पुस्तक समीक्षा)

दिव्य प्रकाश दुबे – अक्टूबर जंक्शन (पुस्तक समीक्षा)

लेखक परिचय

दिव्य प्रकाश दुबे जी हिंदी के लेखक हैं जिनकी शैली उन्हें हिंदी साहित्य के जाने-माने लेखकों से अलग पहचान बनाने में सहायक सिध्द होती है। इनका जन्म 8 मई 1982 को लखनऊ में हुआ था। इन्होंने कम्प्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग के साथ एम. बी.ए. भी किया है। इन्होंने कहानियाँ लिखना काफी पहले शुरू कर दिया था जो बाद में प्रकाशित हुईं। इनके अभी तक पाँच उपन्यास प्रकाशित हुए हैं और सभी में इनके कार्य को सराहा गया है। अब वे फिल्मों के लिए संवाद लेखन का कार्य भी कर रहे हैं। साथ ही सोशल मीडिया पर भी ‘स्टोरीबाजी’ करते हुए युवाओं के दिलों में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो रहे हैं।

अक्टूबर जंक्शन

कहानी शुरू होती है 10 अक्टूबर 2020 के एक प्रेस कॉन्फ्रेंस से, जो दिल्ली में हो रही है जहाँ हमारा परिचय उपन्यास की नायिका चित्रा से करवाया जाता है। यहाँ एक रहस्योद्घाटन के बाद लेखक हमें सीधे ले चलते हैं दस साल पहले जब इत्तेफाक से सही हमारे नायक सुदीप की मुलाकात चित्रा से होती है और वो भी बनारस में। सुदीप एक  यूथ आइकॉन है और चित्रा एक लेखिका जो पेज थ्री सेलेब्रिटी बनना चाहती है। वैसे तो हीरो-हीरोइन का कैफे में मिलना, नाव में एक साथ घूमना, बड़ा ही फिल्मी है पर फिल्मी होते हुए भी जो बात इस कहानी को खास बनाती है वह है उनका हर साल केवल एक दिन मिलना , उस एक दिन को एक-दूसरे के नाम कर देना। दोनों ने कभी अपने रिश्ते को कोई नाम देने की कोशिश नहीं की। ना दोस्ती और ना ही प्यार पर देखा जाए तो दोनों के बीच सच्ची दोस्ती तो पहले साल से ही हो गई थी। तभी तो दोनों अपने मन की बात कहकर हल्के हो जाते थे और प्यार भी आखिर हो ही गया था। वर्ना वो एक दिन इतना खास क्यों होता।

पुस्तक समीक्षा

जैसा कि इस कहानी का शीर्षक है ‘अक्टूबर जंक्शन’ पूरी कहानी ही इस अक्टूबर माह में सिमट कर रह गई है पर यह अक्टूबर एक माह का न  होकर पूरे 10 साल का हिसाब है। बात करते हैं प्रस्तावना की तो इतनी खूबसूरती से पिरोई गई है कि आगे पढ़ने का मन तो करने ही लगता है। दिव्य जी ने पूरी कहानी में छोटी- छोटी ऐसी बहुत सी चीज़ों का सिरा पकड़ कर रखा है जो कहानी की खूबसूरती में चार चाँद लगाती हैं जैसे छोटी ऊँगली, बहती नदी, चुप्पी, गले लगाना, खाली जगह।

दिव्य जी ने पूरी कहानी आज के युवा को देखते हुए लिखी है। ना ही इसमें कठिन साहित्यिक शब्दों का प्रयोग है और ना ही कहानी को लम्बी करने के लिए गढ़े गए अतिरिक्त वार्तालाप। सबकुछ सटीक मालूम पड़ता है। कहानी साल दर साल बढ़ती जाती है और हम उसमें डूबते जाते हैं। मैंने ये कहानी दो बार पढ़ी । कभी लगता है कि इसका अंत कुछ और भी हो सकता था । अंत तो कई हो सकते हैं पर ये तो लेखक पर निर्भर है कि वह क्या चाहता है। पर अंत में चित्रा का सुदीप बन जाना , इससे अच्छा क्या हो सकता है। दिव्य जी को इस सुंदर रचना के लिए ढ़ेरों बधाइयाँ।

चुनिन्दा पंक्तियाँ :

# सारी दुनिया दिन-रात इस इंतजाम में है कि लोगों को कम-से-कम अपने अंदर झाँकने की फुर्सत मिले।
# शहर थोड़ा मूडी है, हर किसी पर खुलता नहीं और हर किसी से खुलता नहीं।
# हर अधूरी मुलाकात एक पूरी मुलाकात की उम्मीद लेकर आती है।
# कोई साथ बैठा हो, चुपचाप हो और चुप्पी अखर न रही हो। ऐसी शामें कभी-कभार आती हैं।
# साथ रोना साथ हँसने से ज्यादा बड़ी चीज़ है।
# ” देखो करोड़पति इंसान, एक कुल्हड़ वाली चाय का इतना एहसान मत मानो। वैसे भी मेरी लाइफ तो हैपनिंग होने वाली है। तुम्हारा कभी रोने का मन करे तो तुम कॉल कर लेना। ठीक है?”
# मिलकर देखने में एक उम्मीद है कुछ ढूंढ़ने की, थोड़ा रास्ता भटकने की, थोड़ा सुस्ताने की। उम्मीद इस बात की भी कि नाउम्मीदी मिले लेकिन इतना सोच-समझकर चले भी तो क्या खाक चले।
# नदी और जिंदगी दोनों बहती है और दोनों ही धीरे-धीरे सूखती रहती हैं।
# “सामने देखो, सूरज डूब रहा है। सूरज को डिस्टर्ब मत करो।”
# जिंदगी जब हद से ज़्यादा उलझ जाए तो ऐसे ही टुकड़े-टुकड़े करके ही संभलती है।
# सुन पाना इस दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। लोग बीच में समझाने लगते हैं। उससे ही सब बात खराब हो जाती है।
# दो लोग जब एक-दूसरे को पूरी तरह समझ लेते हैं तो बीच की खाली जगह खोकर एक दुनिया हो जाते हैं।
# ऐसे रिश्ते जो खाली जगह को सहेजकर नहीं रख पाते वो तालाब के पानी के जैसे बासी हो जाते हैं।
# हम सबके अंदर एक किताब होती है। ……..वो बात जो समंदर के किनारे टहलते हुए सबसे पहले आकर पैर से टकराती है।

वैसे तो इस किताब में और बहुत सी पंक्तियाँ है जो मुझे पसंद हैं पर सबको लिख पाना मुमकिन नहीं है। तो अगर आप भी पढ़ने के शौकीन हैं और कुछ हल्का-फुल्का पढ़कर दिमाग को सुकून देना चाहते हैं तो जरूर पढ़ें ‘अक्टूबर जंक्शन’।

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