भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 5)

भगवतीचरण वर्मा चित्रलेखा सारांश भाग 2

भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 5)

भगवतीचरण वर्मा चित्रलेखा सारांश भाग 2

भगवती जी ने इन भागों में चित्रलेखा के चरित्र के उस भाग का वर्णन बड़ी ही गहराई से किया है जहाँ अपने साध्य को पूरा करने के लिए बीजगुप्त के लिए त्याग का दिखावा करती है।

                         दसवाँ परिच्छेद

भोजन के बाद मृत्युंजय के भवन में, बीजगुप्त,चित्रलेखा, श्वेतांक, कुमारगिरि और विशालदेव हैं। तब मृत्युंजय बीजगुप्त से उसकी वैवाहिक स्थिति के सम्बन्ध में पूछते हैं। वह कहता है कि शास्त्रानुसार मेरा विवाह नहीं हुआ है परन्तु  मैं चित्रलेखा को अपनी पत्नी मानता हूँ और हमारा सम्बन्ध हमेशा के लिए है। इस बात पर मृत्युंजय कहते हैं कि तुम्हारा कहना सही है पर तुम चित्रलेखा से विवाह नहीं कर सकते और उसकी सन्तान भी तुम्हारी उत्तराधिकारी नहीं हो सकती। फिर वे चित्रलेखा से उसका मत पूछते हैं। चित्रलेखा कहती है कि आपका कहना सही है। इस स्थिति में मैं वही करुँगी जिससे बीजगुप्त का भला हो। पर इसके लिए मुझे त्याग करना पड़ेगा। तब कुमारगिरि मुस्कुराते हुए कहते हैं कि यह तो तुम्हारे लिए अच्छा अवसर है। तुमने ही कहा था कि तुम विराग का जीवन अपनाना चाहती हो।

इसी तरह बीजगुप्त, चित्रलेखा, कुमारगिरि और मृत्युंजय अपनी-अपनी बात रखते हैं। अंत में बीजगुप्त वहाँ से उठकर चला जाता है। उसके जाने के बाद चित्रलेखा मृत्युंजय से कहती है कि बीजगुप्त और यशोधरा का सम्बन्ध श्रेष्ठ होगा। फिर श्वेतांक के साथ वह भी चली जाती है। उनके जाने के बाद मृत्युंजय कहते हैं कि चित्रलेखा का मन बहुत साफ है। यह सुनकर कुमारगिरि विशालदेव की ओर देखते हैं। विशालदेव मन ही मन में मुस्कुराता है। मृत्युंजय कहते हैं कि लगता है कि बीजगुप्त को छोड़ देना चाहिए नहीं तो चित्रलेखा को बहुत दुख होगा। पर कुमारगिरि कहते हैं कि मुझे ऐसा नहीं लगता। उनका सम्बन्ध टूट जाना चाहिए। यशोधरा के लिए बीजगुप्त ही सबसे अच्छा वर है।

 ग्याहरवां परिच्छेद

चित्रलेखा ने अपने जीवन में अनेक बार प्रेम का अनुभव किया था। पहली बार उसने अपने पति से प्रेम किया जिसमें  पवित्रता और भक्ति थी, समर्पण और त्याग था। पति की मृत्यु के बाद उसे कृष्णादित्य से प्रेम हुआ जिसने उसे स्वयं की और इच्छाओं की पूर्ति होने पर मिलने वाली तृप्ति का अनुभव कराया। अब वह जान चुकी थी कि प्रेम समय के साथ धुंधला होकर मिट भी सकता है।

बीजगुप्त के जीवन में आने पर उसने पहली बार प्रेम की मादकता के साथ भोग-विलास के साधन भी देखे। इस बार वह कुमारगिरि की ओर आकर्षित हुई है, पर बीजगुप्त के रहते वह सीधे कुमारगिरि के पास नहीं जा सकती। मृत्युंजय के यहाँ हुई घटना ने उसका कुमारगिरि के पास जाने का रास्ता खोल दिया।

दूसरे दिन सुबह चित्रलेखा ने स्नान के बाद केवल केशरिया साड़ी पहनी। फिर बीजगुप्त के नाम एक पत्र लिखकर दासी को देकर कहा कि यदि वह शाम तक न आए तो यह पत्र बीजगुप्त को पहुँचा दे। फिर वह रथ में कुमारगिरि की कुटी की तरफ जाती है। राजमार्ग में ही उतरकर रथवान से कहती है कि दोपहर तक न लौटे तो रथ लेकर चला जाए।

चित्रलेखा कुटी में पहुँचती है। कुमारगिरि ध्यान में बैठे हैं। जब वे आँखें खोलते हैं तो एक वस्त्र में लिपटी शांत चित्रलेखा को देखते ही रह जाते हैं। अब चित्रलेखा कहती है कि वह उनसे दीक्षा लेने आई है। उसने अपना सबकुछ त्याग दिया है। केवल ममत्व बचा है जिसे छुड़ाना कुमारगिरि का कर्तव्य है। तब कुमारगिरि कहते हैं कि वे तो पहले ही मना कर चुके हैं। उसे दीक्षित करना मतलब खुद को नीचे गिराना।

वे उसे सच बोलने को कहते हैं। क्या वह सच में ज्ञान पाना चाहती है? तब चित्रलेखा कहती है कि वह उनसे प्रेम करने आई है और चाहती है कि कुमारगिरि भी उससे प्रेम करे। तब कुमारगिरि कहते हैं कि जबरदस्ती किसी से प्रेम नहीं कराया जा सकता। तब चित्रलेखा कहती है कि जिस प्रेम भाव को उसने अपने विवाह में देखा था। उनका वास्तविक रूप तब नहीं देख पाई थी इसलिए उस सत्य को जानने ही आई हूँ। वह कहती है कि वह वापस नहीं जा सकती।
तब कुमारगिरि कहते हैं कि लगता है कि भगवान की यही इच्छा है कि मैं तुम्हें दीक्षित करूँ।

कुमारगिरि विशालदेव को बुलाकर चित्रलेखा के लिए कुटी तैयार करने को कहते हैं और बताते हैं कि वे उसे दीक्षा देने वाले हैं। विशालदेव मुस्कुराते हुए पूछता है कि क्या आज रात तक कुटी तैयार कर देनी होगी? तब कुमारगिरि गुस्से में कहते हैं कि नहीं!कुटी की जरूरत नहीं है। चित्रलेखा उनकी कुटिया में ही रहेगी। वह उसे दिखाना चाहते हैं कि तप और साधना में कितनी शक्ति होती है।

 बारहवाँ परिच्छेद

इधर बीजगुप्त को एहसास होता है कि उसने बिना कारण ही मृत्युंजय का अपमान कर दिया था। दूसरे दिन सुबह श्वेतांक के आने पर वह उससे इस बारे में पूछते हैं। वह कहता है कि जो आपने कहा वह ठीक ही था। बातें हुईं ही इस तरह से कि मृत्युंजय खुद को अपमानित समझ सकते हैं। सत्य तो सत्य ही है। बीजगुप्त को मृत्युंजय से ज्यादा यशोधरा को बिना कारण दुख पहुँचने का ध्यान था। उसके आगे यशोधरा का मोहक सुंदर रूप नाच रहा था। परंतु वह उससे प्रेम नहीं कर सकता था क्योंकि वह चित्रलेखा से प्रेम करता था। उसने मृत्युंजय से क्षमा याचना करते हुए पत्र लिखकर श्वेतांक को दिया और उन्हें देकर आने को कहा।

श्वेतांक पत्र लेकर मृत्युंजय के भवन जाता है। उसे पता चलता है कि मृत्युंजय बाहर गए हुए हैं। उसे वहां यशोधरा मिलती है। वह उसे बिठाकर कहती है कि आपको प्रतीक्षा में कष्ट होगा। श्वेतांक कह उठता है कि पाटलिपुत्र की सबसे सुंदर स्त्री के साथ बैठने में कैसा कष्ट। यह सुनकर यशोधरा शरमा जाती है। वह श्वेतांक से बीजगुप्त और चित्रलेखा के बारे में पूछती है। श्वेतांक दोनों की प्रशंसा करता है। वह फिर पूछती है कि क्या पाप का पता लगाने के लिए वह उचित स्थान है? तब वह उसे बताता है कि उसे यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरे गुरुभाई विशालदेव को योगी कुमारगिरि के पास इसी प्रयोजन हेतु भेजा गया है। यह आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि जिनके पास भेजा गया है वे पापी ना हों बल्कि उनके पास आने वाले लोग पापी हों।

तभी मृत्युंजय आते हैं। श्वेतांक उन्हें पत्र देता है जिसे पढ़कर उनके चेहरे पर संतोष का भाव आ जाता है। वे कहते हैं कि बीजगुप्त से कहना कि माफी मांगने की जरूरत ही नहीं थी।मैं चाहता हूँ कि अगर उन्हें सन्ध्या समय में कोई काम ना हो तो यहाँ आएं और हमारे साथ ही भोजन करें। तुम भी आमंत्रित हो। यह सुनकर श्वेतांक खुश हो जाता है और कहता है कि यदि स्वामी आएंगे तो मैं भी अवश्य आऊँगा। तब मृत्युंजय श्वेतांक से उसके पिता के बारे में पूछते हैं। वह बताता है कि वह सूर्यवंशी है और पिता का नाम विश्वपति है और निवास कौशल प्रदेश है। यह सुनकर मृत्युंजय कहते हैं कि विश्वपति तो उनके गुरूभाई हैं। इस परिचय को सुनकर श्वेतांक के मन में यशोधरा से विवाह की आशा उत्पन्न हो जाती है जबकि वह जानता है कि उसके पिता का वैभव नष्ट हो चुका है।

श्वेतांक वापस आकर बीजगुप्त को निमंत्रण की बात बताता है। बीजगुप्त इसपर बहुत विचार करने के बाद जाने का निश्चय करता है। रात्रि में दोनों वहाँ पहुँचते हैं। मृत्युंजय उनका स्वागत करता है। यशोधरा भी वहीं उपस्थित थी। बातचीत शुरू होती है। मृत्युंजय उनसे देर से आने का कारण पूछता है। बीजगुप्त बताता है कि आज काशी से कुछ अतिथि आए थे। तब यशोधरा उससे पूछती है कि क्या वे काशी गए हैं? तब बीजगुप्त बताता है कि उसके गुरु महाप्रभु रत्नाम्बर पहले काशी में ही रहते थे और उसने पूरे उत्तर भारत का भ्रमण किया है। फिर वह सभी से अपनी यात्रा के अनुभव साझा करते हैं। फिर सभी भोजन करने बैठते हैं।

यशोधरा कहती है कि काश वह भी वैसे अनुभव ले पाती। तब बीजगुप्त कहता है कि परिस्थितियाँ मनुष्य को अनुभव कराती हैं। इस पर श्वेतांक कहता है कि अनुभवों के लिए तो सारा जीवन पड़ा है। तब यशोधरा कहती है कि जीवन का प्रत्येक क्षण मूल्यवान है। क्या इसे व्यर्थ करना बुरा नहीं है? तब बीजगुप्त कहता है कि सबकुछ ऊपरवाले की इच्छा पर निर्भर है। हर चीज के दो पहलू होते हैं। सत्य का पता लगाना मुश्किल है। तब श्वेतांक कहता है कि सुखी जीवन के लिए प्रेम सबसे जरूरी है। एक-दूसरे के लिए सहानुभूति और अपने अस्तित्व को दूसरे में मिला देना ही प्रेम है। तब यशोधरा और श्वेतांक एक -दूसरे को देखने लगते हैं और बीजगुप्त हँसते हुए कहता है कि यही जीवन है।

चुनिंदा पंक्तियाँ :

# “त्याग करना पड़ेगा नर्तकी !”-कुमारगिरि मुस्कुराए-“बड़ी विचित्र बात कह रही हो। तुम सम्भवतः अपनी मनःप्रवृत्ति को भूल रही हो। तुमने एक बार मुझसे कहा था कि तुम विराग के जीवन को अपनाना चाहती हो, उसके लिए यह सबसे अच्छा अवसर है।”
# और बीजगुप्त ? परिस्थिति-चक्र का एक अभागा शिकार; पर साथ ही मनुष्यता से पूर्ण मनुष्य।
# प्रेम किस प्रकार किया जाता है? मैंने अभी तक यह समझा था कि मनुष्य में प्रेम की उत्पत्ति स्वयं हो जाती है। यह नहीं जानता था कि प्रेम करने के लिए पहले मनुष्य कटिबद्ध होता है, फिर प्रेम करता है।
# हमारे प्रत्येक कार्य में अदृश्य का हाथ है। उसकी इच्छा ही सबकुछ है। और संसार में इस समय दो मत हैं। एक जीवन को हलचलमय करता है; दूसरा, जीवन को शान्ति का केंद्र बनाना चाहता है। दोनों ओर के तर्क यथेष्ट सुन्दर हैं। यह निर्णय करना कि कौन सत्य है, बड़ा कठिन कार्य है।

चित्रलेखा के चले जाने से बीजगुप्त के जीवन  और परिस्थितियाँ में कैसे बदलाव आते हैं और बीजगुप्त यशोधरा की ओर आकर्षित होगा या नहीं जानने के लिए पढ़ें अगला भाग।

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