सत्य व्यास : दिल्ली दरबार (भाग 2) | दिल्ली दरबार (उपन्यास)

भेद जिया के खोले ना

सत्य व्यास : दिल्ली दरबार (भाग 2)

सत्य व्यास युवाओं के चहेते हैं। उन्होंने अपने उपन्यास में भी दो ऐसे युवकों का चुनाव किया है जिनका जिंदगी को देखने का नज़रिया एक-दूसरे बहुत अलग है पर हैं पक्के दोस्त। ऐसे कई उदाहरण आपको अपने आस-पास भी मिल जाएंगे और यही इस उपन्यास की खासियत है।

साहिल की तरफ़ कश्ती ले चल

दिल्ली-दिलवालों का शहर जहाँ हर कोई अपने छोटे-छोटे सपनों को ऊँची उड़ान देने अपने खेत, पहाड़, झरने छोड़कर चला आता है और यहीं का होकर रह जाता है। इस तरह ये शहर खानाबदोशों के मेले से लगता है और इस मेले की एक ख़ास नस्ल है स्टूडेंट्स।

हमने पहले कॉलेज में एडमिशन लिया फिर एक कमरे की तलाश में लग गए। लक्ष्मी नगर की एक गली में ‘Too-let’ का बोर्ड देखकर हम रूक गए। पास की दुकान से पूछने पर कन्फर्म हुआ कि वह to-let है। उस घर के बाहर ‘राधा निवास’ लिखा हुआ था जिसे एक लड़का पत्थर से घिसकर ‘आधा निवास’ बनाने पर तुला हुआ था। पता चला कि कल उसकी बॉल उनके छत पर चली गई थी तो शर्माजी ने बॉल आधी काटकर लौटाई थी।

हम दोनों अंदर गए। दरवाजा एक ठिगने कद के आदमी ने खोला। पहले तो उसने हमें चन्दा माँगने वाले समझकर भगाना चाहा पर यह सुनकर कि हम स्टूडेंट्स हैं और कमरा देखने आए हैं तो उसने हमें चाबी देकर छत पर बने कमरे को देखने भेज दिया। कमरा ठीक ही था। उससे लगा एक बाथरूम और किचन भी था। हमने नीचे आकर उन्हें बता दिया कि कमरा हमें पसंद है। यह सुनते ही उन्होंने बहुत से नियम बताने शुरू कर दिए जैसे रात में दोस्त नहीं ठहर सकते, सीढ़ी और छत की सफाई का किराया अलग से देना होगा आदि।

जब हम सारे नियमों पर राजी हो गए तो किराया बताया सात हजार रुपये महीना जिसे हमें थोड़ी ना के बाद मानना ही पड़ा। साथ ही उन्होंने बाहर से टिफिन न लेकर एक छोटू नाम के लड़के को घर पर काम के लिए भी रखवा दिया। हमने कहा कि कल से शिफ्ट हो जाते हैं तो वे बोले कल वे मैरिज शिरोमणि में जा रहे हैं तो आप लोग शनिवार को आ जाइये। ‘शिरोमणि’ तो आपलोग समझ ही गए होंगे-

‘ सेरेमनी ‘।अब अंकल ने मांगा एड्रेस प्रूफ कि कहीं हम घर को ‘ बटला हाउस ‘ न बना दें। इसके लिए राहुल ने उनका ईमेल एड्रेस मांगा ताकि अपने पापा से एड्रेस प्रूफ मेल करवा दे। तब शर्मा जी ने कहा ‘ बड़ेबटुक@जीमेल.कॉम’ और स्पेलिंग पूछने पर ‘badabuttock@gmail.com’ बताया जिसे सुनते ही हमारी हंसी छूटने लगी।

इस तरह दो-चार और नियम जानने के बाद हम जाने लगे। जाते हुए मैंने राहुल से पूछा कि ईमेल आईडी क्यों मांगे? अब प्रूफ कहां से देंगे? तो राहुल ने कहा कि उसे नहीं पता था कि शर्मा जी के पास ईमेल आईडी भी होगा। उसने सोचा था कि वह पर्दे के पीछे से झाँक रही लड़की का ईमेल आईडी देंगे। और आखिर में गेट से निकलते वक़्त हमारे कानों में आवाज आई- ‘ परिधि, अपणे बाइस्कोप की आवाज कम कर छोरी। ‘

बीबी

बटुक शर्मा की इकलौती बेटी परिधि जिसकी कोई परिधि नहीं थी। शर्मा जी ने बेटी को बेटे से कम नहीं समझा और परिधि ने भी औचित्य बनाए रखा। छठी कक्षा में माँ और पड़ोसन के झगड़े में पड़ोसन के सिर पर गमला गिरा दिया। सातवीं कक्षा में ‘इंडियन आइडल’ बनने का भूत सवार हुआ जो फ़र्जी प्रोडक्शन कंपनी के इक्यावन हजार लूटकर भाग जाने पर उतरा।

आठवीं कक्षा में शहादरा वाले फूफा जिन्हें छोटी बच्चियों से पैर दबवाने में बहुत आनन्द आता था ज्यादा ऊपर दबवाने के चक्कर में मालिश का प्रलोभन देकर खौलता सरसों तेल जांघों पर डाल दिया। इसी तरह हर कक्षा की नई कहानी। कभी कमरे में इमरान हाशमी के फोटोज़ कभी लगाए गए तो कभी फाड़े गए। असली आंधी तो कक्षा बाहरवीं में आई।

नवीं कक्षा वाला इमरान हाशमी जिसने बीबी के सामने उसकी सहेली को प्रपोज किया था, लौट आया था। सहेली ने लड़के की खूबियां बताने की बहुत कोशिश की पर बीबी सुनने को तैयार नहीं थी।

परीक्षा से चार महीने पहले बहुत से स्टूडेंट्स को इंटर स्कूल कॉम्पिटिशन के लिए आगरा ले जाया गया। बीबी ने भी डिबेट में हिस्सा लिया था और लड़के ने ड्रामा में। बीबी ने सारी तैयारियां कर ली थीं क्योंकि उसका इमरान डम्बो था।

आगरा पहुँचकर जब लड़के और लड़कियों को अलग-अलग फ्लोर पर ठहराया गया तो बीबी दुखी हो गई पर जोश कायम था। दुख में भी डिबेट तो जीत लिया पर लड़के को सरप्राइज देना बचा था।

जब सारी लड़कियां रात को मेस में खाना खाने पहुँची बीबी लड़के के कमरे में नजर आईं। लड़का हैरान। वह अपने साथ एक हाथ लम्बी छड़ी लेकर गई थी और टीचर-टीचर खेलने के मूड में थी।

लड़के को बिस्तर पर धकेल दिया और एक छड़ी लगा दी। लड़के के मुँह से निकला- ‘ ऊई माँ ‘ जिसे सुनकर बीबी का आधा नशा गायब हो गया। फिर कुछ सिसकारी और चाल ने काम किया। कुल मिलाकर बीबी को समझ आ ही गया कि लड़का नब्बे प्रतिशत स्त्रीलिंग और दस प्रतिशत पुर्लिंग है।

दिल तो टूटा ही एग्जाम भी छूटा। बाहरवीं की परीक्षा अगले साल प्राइवेट में दिलाई गई।अब वह समय पार करने के लिए होम साइंस में ग्रेजुएशन कर रही है और दर्द भरने के लिए शायरी और कविताएँ पढ़ रही है।

यह उदासी भी तब तक है जब तक बीबी को साहब ना मिल जाए। जब हम लोग कमरे के लिए बटुक जी से बातें कर रहे थे तो परिधि हमें पर्दे के पीछे से सुन रही थी और राहुल ने भी उसे देखा था।

चुनिन्दा पंक्तियाँ :

# यहाँ खानाबदोश कई शक्लों में आते हैं। मजदूर, मजबूर, बीमार, खरीददार और सबसे ज्यादा, बेरोजगार। मजदूर बिहारी हुए जो दिहाड़ी की लालच में दिल्ली पहुँचे और इसके मुहानों पर बस्तियाँ आबाद करते चले गए। मजबूर सिख हुए जो बार-बार जितनी बर्बरता से उजड़े, बार-बार उतनी ही उर्वरता से उभरे।

# जो तेरी सरधा हो दे देना बेटा। वैसे तो हमने ना दी कभी सरकार को। बस ये ध्यान रखियो कि सामने वाली तार पै कपड़े मत फैला दियो। वरना निकल लेगा बद्रीनाथ को, बिना टिकट।

# बेटा, तम अपने बाप के पैसे खराब कर रहे हो और कुछ नहीं। ‘बटुक’ को बटक कहते हैं। घर लौट जाओ। तम जैसे बच्चे दिल्ली में किलो के तेरह मिलते हैं।

# प्रेम, पानी और प्रयास की अपनी ही जिद होती है और अपना ही रास्ता।

# फ्रिक्वेंसी मिल जाए तो टॉवर पकड़ ही लेता है।

सत्य व्यास ने एक साधारण सी कहानी को रुचिकर बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। इस भाग की शुरुआत ही बहुत ही कम शब्दों में दिल्ली की पूरी पहचान उनके अलग नजरिए को दर्शाती है।

अगर आप जानना चाहते हैं कि परिधि और राहुल के सिग्नल आपस में टकराकर एक कैसे हो जाते हैं , तो जरूर पढ़ें भाग 3।

 

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