भगवतीचरण वर्मा: चित्रलेखा ( सारांश-भाग 2)
इस भाग में हम देखेंगे कि कुमारगिरि ने तप द्वारा अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण के साथ ही ऐसी शक्तियाँ भी अर्जित कर ली हैं जिससे वह सम्पूर्ण संसार को चकित कर सकता हैं। इधर श्वेतांक अचानक ही मिले वैभव से प्रभावित हो अब तक किए संयम का त्याग कर देता है। यहाँ भगवतीचरण जी ने मनुष्य के चिर-परिचित स्वभाव को ही दिखाया है जो परिस्थितियां बदलते ही बदल जाता है।
दूसरा परिच्छेद
कुमारगिरि को संसार में कोई रुचि नहीं थी। उसने संयम को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। वह किसी प्रकार के सुख की कल्पना ही नहीं करना चाहता था ताकि कल्पना के पूरा न होने का उसे दुख ही न हो। उसका शिष्य मधुपाल उससे पूछता है कि संयम का लक्ष्य क्या है? तब कुमारगिरि उसे बताते हैं कि शांति और शांति से मिलने वाला आनन्द। संसार शून्य है। एक योगी ही शून्य में ब्रह्म से मिलकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
उसी समय महाप्रभु रत्नाम्बर विशालदेव के साथ उसकी कुटिया में प्रवेश करते हैं। उन्हें देखकर कुमारगिरि खड़े हो जाते हैं और रत्नाम्बर के गले लगते हैं। रत्नाम्बर उन्हें बताते हैं कि वे यहाँ अपने शिष्य विशालदेव को उनके द्वारा दीक्षित करवाने लाए हैं। इस पर कुमारगिरि कहते हैं कि वे इसके योग्य नहीं हैं पर रत्नाम्बर कहते हैं कि कुमारगिरि वास्तव में योग्य हैं। वे इस संसार से ऊपर उठ चुके हैं। उनके साथ रहकर विशालदेव जीवन से सम्बंधित सभी समस्याओं को सुलझाने योग्य बन सकेगा।
तब कुमारगिरि विशालदेव से पूछते हैं कि जीवन की किस समस्या को सुलझाने के लिए तुम मेरे पास आए हो? तब वह बताता है कि वह पाप को जानना चाहता है। तब कुमारगिरि हँसते हुए कहते हैं कि पाप को तो अनुभव से जाना जाता है। मेरे पास तुम्हें उसका अनुभव नहीं हो पाएगा। परन्तु तुम्हारे गुरु चाहते हैं कि मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाऊँ पर मैं ये बता देना चाहता हूँ कि मैं तुम्हें पुण्य दिखा दूँगा तब क्या पुण्य को जानकर तुम पाप का पता लगा लोगे? यह सुनकर रत्नाम्बर मन ही मन मुस्कराते हैं और कहते हैं कि तुम ठीक कह रहे हो। फिर भी मेरा निवेदन स्वीकार कर लो। फिर वे जाने के लिए खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं भी नहीं जानता कि पाप क्या है। अब मैं तपस्या करूँगा और आज तक जिन बातों को नहीं जान सका हूँ उन्हें साधना द्वारा जानने की कोशिश करूँगा। फिर वे चले जाते हैं।
उनके जाने के बाद कुमारगिरि विशालदेव से कहते हैं कि वे उससे कुछ प्रश्नों के उत्तर जानना चाहते हैं। वे प्रश्न करते हैं कि वासना क्या है? विशालदेव बताता है कि वासना इच्छाओं का दूसरा नाम है। इस पर कुमारगिरि कहते हैं कि ठीक! पर क्या तुम जानते हो कि मनुष्य के जीवन में इसका क्या स्थान है? शायद नहीं! तो आज मैं तुम्हें बताऊँगा। वासना पाप है। यह मनुष्य जीवन को कलंकित कर देता है। वासना के रहने पर किसी भी ईश्वरीय गुण को पाना असंभव है।
वे विशालदेव से कहते हैं कि उनका शिष्य होने पर उसे सबसे पहले वासना को छोड़कर अपने मन की शुद्ध करना होगा। तब वह कहता है कि वह कोशिश करेगा परन्तु उसे कुछ आपत्ति है। वह कहता है कि वासना को छोड़ना जीवन के सिद्धांतों के प्रतिकूल है क्योंकि मनुष्य जीवन होता ही है कर्म करने के लिए। यदि कर्म के साधन को ही नष्ट कर दिया जाए तो क्या यह विधि के विधान के प्रतिकूल नहीं हो जाएगा। जब आप मेरी शंका का समाधान कर देंगे तब मैं आपके बताए रास्ते पर चलूँगा। तब कुमारगिरि कहते हैं कि वे उसकी शंका का समाधान कर उसका पाप से परिचय करवा देंगे।
तीसरा परिच्छेद
श्वेतांक अभी से पहले तक गुरुकुल में रहा था। उसे शास्त्रों का ज्ञान तो बहुत था परन्तु वास्तविक जीवन से और उससे भी अधिक किसी स्त्री मन से तो वह बिल्कुल भी परिचित नहीं था। वह मदिरापान की हुई चित्रलेखा को प्रतिदिन उसके घर पहुँचाने जाता था। उसे देखकर श्वेतांक के मन में अजीब सी हलचल पैदा हो जाती थी। बीजगुप्त के यहाँ उसे सभी बीजगुप्त के छोटे भाई सा सम्मान देते थे। साथ ही वहाँ उसे सभी सुख-सुविधाएं भी उपलब्ध थीं। धीरे-धीरे वह भी इन सबका आदी होने लगा।
एकदिन जब बीजगुप्त कहीं बाहर गया हुआ था, रोज के समय पर शाम को चित्रलेखा आई। श्वेतांक ने उसका स्वागत किया। तब चित्रलेखा ने उससे पूछा कि “तुम्हारे स्वामी कहाँ हैं?” चित्रलेखा के मुँह से स्वामी शब्द सुनकर उसे बहुत बुरा लगा साथ ही अपनी वास्तविकता का भी आभास हुआ। उसने बताया कि वे बाहर गए हुए हैं। तब चित्रलेखा उससे कहती है कि उसे प्यास लगी है। तब श्वेतांक उसके लिए पानी लेकर आता है। पानी देखकर चित्रलेखा मुस्कुराते हुए कहती है कि वह बहुत भोला है। वह उसे प्यास का अर्थ समझाते हुए मदिरा लाने को कहती है।
श्वेतांक चित्रलेखा को मदिरा से भरा प्याला देता है जिसमें से एक घूँट पीकर श्वेतांक के सामने रख देती है। उस समय श्वेतांक उसके अनुपम सौंदर्य को देख रहा है। चित्रलेखा उसके मदिरा नहीं पीने का कारण पूछती है। वह बताता है कि मदिरा के सेवन से संयम नहीं रहता। तब वह संयम और जीवन दोनों का ही लक्ष्य सुख और शांति बताकर उसे मदिरा पिला देती है। तभी वहाँ बीजगुप्त आता है और यह देखकर हँसने लगता है जिससे श्वेतांक को अपनी गलती का एहसास होता है। बीजगुप्त के जाने के बाद वह चित्रलेखा से कहता है कि चित्रलेखा ने उसकी साधना को नष्ट कर दिया है। उसने उसके हृदय में आग लगा दी है और ऐसा कहते हुए वो चित्रलेखा का हाथ पकड़ लेता है। तब चित्रलेखा कहती है कि वह गलती कर रहा है उसने केवल उसे जीवन का वास्तविक रूप दिखाया है। वह केवल बीजगुप्त से प्रेम करती है। यह कहते हुए वह उसका हाथ झटक देती है।
श्वेतांक अपनी हार मानकर वहाँ से जाने लगता है। तब चित्रलेखा उसे वापस आने को कहती है। श्वेतांक कहता है कि क्या वह उसका और अपमान करना चाहती है? उसकी बात सुनकर चित्रलेखा को दुख होता है। वह उससे अपने बर्ताव के लिए माफी माँगते हुए कहती है कि वह उसे अपने भाई समान मानती है। यह सुनकर श्वेतांक के मन का दुख दूर हो जाता है और चित्रलेखा उसे देवी समान प्रतीत होती है। वहाँ से वह सीधे बीजगुप्त के पास जाता है और उससे खुद को सज़ा देने को कहता है। बीजगुप्त चौंक जाता है और इसका कारण पूछता है। श्वेतांक बताता है कि उसने बीजगुप्त को धोखा दिया है। उसने उस स्त्री से प्रेम करने का अपराध किया है जो उससे प्रेम करती है।
बीजगुप्त उससे कहता है कि माफी माँगने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति वैसा ही करता। तुमने जो भी किया पर सच बताकर तुमने पश्चाताप भी कर लिया। तुम इस संसार में नए हो। अभी तो बहुत सी परीक्षाएं होंगी। पर श्वेतांक अब भी उससे दंड चाहता है। तब बीजगुप्त उसे पहले की ही भाँति चित्रलेखा को प्रतिदिन उसके घर पहुंचाने का दंड देता है।
चुनिंदा पंक्तियाँ :
# सुख कल्पना है-तृप्ति है।
# दुख से शून्य तथा हल्के-से हृदय को कल्पना के संसार में ले जाना सरल होता है।
#योगी जिस समय आँखें बंद करता है उस समय एक अखण्ड शून्य रहता है, और कुछ नहीं। उसी शून्य में सुख-दुख, अनुराग-विराग, दिन-रात, ब्रह्म और माया सब-के-सब लोप हो जाते हैं। ……………और उसी ब्रह्म से युक्त शून्य में सदा के लिए मिल जाने को मुक्ति कहते हैं।
# वासनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करता है, और उनमें डूबकर मनुष्य अपने को अपने रचयिता ब्रह्मा को भूल जाता है।
# वासनाओं का हनन क्या जीवन के सिद्धांतों के प्रतिकूल नहीं है?
# ब्रह्मचारी और नर्तकी।बीजगुप्त इस संयोग पर हँस पड़ा। # स्त्री और मदिरा-तेल से भरे दीपक की ज्योति प्रज्ज्वलित थी, जिसके चारों ओर श्वेतांक एक पतिंगे की भाँति चक्कर काट रहा था।
# जीवन एक अविकल पिपासा है। उसे तृप्त कर देना जीवन का अंत कर देना है।
इस प्रकार श्वेतांक को अपने सांसारिक जीवन का पहला सबक मिल गया है। आगे हम देखेंगे कि जब कुमारगिरि और चित्रलेखा की भेंट होती है तब एक योगी की शक्तियॉं उसका कितना बचाव करती हैं। (आगे जानने के लिए पढ़िए भाग 3)